बृजेश (भाग-१२) : शहरी गँवार


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खेत से वापस घर तक आये, मगर घर गए नहीं | अपितु बृजेश भाईसाहब घर को पार कर के घर की पीछे की तरफ चल पड़े और मैं उसके पीछे पीछे | घर के ठीक पीछे, घर की पिछली दीवार से थोड़ी दूर एक हैण्डपंप था | हम दोनों ने वहीं हाथ धोये | हाथ क्या धोने थे, बृजेश को देख कर तो लगा कि लगभग स्नान भी कर लिया उसने | पहले हाथ, फिर बाजू, चेहरा, गला, पैर, और घुटने के थोड़े नीचे तक पिंडलियाँ – सब ऐसे रगड़ रगड़ के धोये जैसे दिल्ली-गुडगाँव वाले बारिश के बाद सड़क पर भरे नाली सीवर के पानी में भीगने के बाद घर आकर स्नान कर के शुद्ध होते हैं | खैर, वहाँ से वापस आकर हम घर पर आये तो बृजेश ने टूथपेस्ट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, आप मंजन कर लो फटाफट, फिर हम लोग स्नान कर आते हैं, नहीं तो थोड़ी देर में भीड़ लग जाएगी |

“हम” स्नान कर आते हैं – सुन कर मेरे चेहरे का रंग बदल गया | “हम” से क्या मतलब है? इस सदमें से थोड़ा संभल पाता कि उससे पहले ही वाक्य के अगले हिस्से ने कुठाराघात कर के मेरे होशो-हवास उड़ा दिए | “क्या मतलब है ‘हम’ से? यहाँ बाथरूम भी नहीं है क्या? खुले में नहाना पड़ेगा क्या?”, बदहवासी में बिना सोचे समझे कि मेरे मेजबान को बुरा लग सकता है, मैं अपने ही दुःख में खोया, भावातिरेक में उचित-अनुचित का विचार करना भी भूल गया था | “नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूँ ! मुझे नहीं नहाना |”, मैंने बोल तो दिया मगर मुझे भी पता था कि मैं इस स्थिति में नहीं था कि स्नान किये बिना रह सकूँ | एक तो जनरल कोच में – भीड़भाड़ भरे कोच में पसीने से नहाये हुए बदन और कल के पहने हुए कपड़े दोनों ही आतंक मचा रहे थे | अगल बगल वाले क्या सोच रहे होंगे पता नहीं पर मैं खुद भी अपने को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था | कल यात्रा की थकावट, और और फिर संध्या में अँधेरे और नींद के चक्कर में तो एकबारगी मैं टाल गया था पर अब और ज्यादा देर सहन नहीं कर पा रहा था | ऐसे भी मुझे गर्मी कुछ अधिक ही परेशान करती है और पसीना भी अधिक ही आता है | ऐसे में इस गर्मी के मौसम में ठन्डे पानी में स्नान मेरे लिए उतना ही जरुरी हो रहा था जितना मछली के लिए पानी |

मेरे नखरे एक बच्चे जैसे थे | उम्र या शरीर की लम्बाई बढ़ने से ही कोई बड़ा नहीं होता – यह आज फिर प्रत्यक्ष हो गया था | माँ-बाप का इकलौता दुलारा बेटा, नाज़-नखरों में पूरी राजसी ठाटबाट में, लगभग पूरी स्वंत्रता से एकाधिकार के साथ अपने बेडरूम, बाथरूम पर पूरी बादशाहत से दशकों तक राज्य किया हो जिसने, जिसको उसके माता-पिता ने भी कभी अर्द्ध-नग्न भी न देखा हो बाकी किसी अन्य मित्र आदि को तो भूल ही जाइए, उसको आप सड़क पर खुलेआम सबके सामने नहाने को कह के तो देखो – आपको स्थिति का अंदाजा हो जाएगा कि स्थिति कितनी विस्फोटक हो सकती है | मगर बृजेश मेरी तरह एक छोटा बच्चा नहीं था | अपितु, बृजेश एक युवा शरीर में भी परिपक्वता की जीती जागती मिसाल था जिसको मेरे जैसे बच्चों को सँभालने का दायित्व भी नया नहीं रहा होगा, या शायद उसको इस स्थिति का पूर्वानुमान था और वो शायद इसके लिए पहले से ही तैयार था |

उग्रता को शीतलता ही शांत कर सकती है | बृजेश की मधुर मुस्कान और शीतल शब्दों ने तुरंत मेरे उबलते हुए उफान को शांत कर दिया | कारण था तो – निवारण ही समाधान दे सकता था | और निवारण दो ही थे – मेरे लिए घर पर बाल्टी भर कर पानी लाया जाता पर उससे दिक्कत थी कि मुझे सिर्फ एक ही बाल्टी पानी या ज्यादा से ज्यादा दो में गुज़ारा करना पड़ता और फिर भी घर में उपस्थित अतिथियों, हलवाइयों आदि की भीड़ बाहर मौजूद लोगों से अधिक थी | घर में भी कोई अलग से कमरा नहीं था नहाने के लिए – बाहर खुले में ही नहाना पड़ता जहां सब सब्जी, बर्तन धुलने और हलवाई अपने बर्तन धोने लगे हुए थे | बार बार पानी की बाल्टी मंगाना भी अशोभनीय था और फव्वारे के नीचे खुले पानी में नहाने के आदि मुझ जैसे युगपुरुष के लिए लिए एक या दो बाल्टी पानी निश्चय ही कम पड़ती | दूसरा उपाय था कि बाहर अभी जब सुबह भीड़ कम है तो फटाफट स्नान कर के वापस आ जाया जाय | बृजेश के शालीन स्वाभाव और मेरे नखरे को सह कर भी “मैं आप के लिए घर में बाल्टी भर के ले आता हूँ|”, ऐसा सुझाव मुझे अपनी गलती पर शर्मिंदगी का एहसास कराने के लिए काफी था |

नहाने के लिए जब हैंडपंप पर पहुंचे, तो दो एक लोग थे जो हैण्डपंप पर अपना ‘अर्द्ध-स्नान’ निपटा रहे रहे थे, जैसे बृजेश ने कुछ देर पहले किया था | चोरी-चोरी नज़रों से मैं इधर उधर की परिस्थिति का जायजा लेने लगा कि कितने लोग आसपास हो सकते हैं जो मुझे नहाते हुए देख सकते हैं | ज्यादा नहीं थे, सिर्फ कुछ एक छोटे बच्चे अपनी पानी की बोतल हाथ में लेकर इधर को आ रहे थे, बाकी सब लगभग सुनसान ही था | दिल में धक्-धक् के साथ थोड़ा सुकून भी हुआ | बृजेश ने कहा, “अब आप पहले नहा लो | लाओ अपने कपड़े मुझे पकड़ा दो और आप नहाना शुरू करो” | बृजेश ने शब्दों शब्दों में ही मुझे पुनः सचेत कर दिया था कि देर करना मेरे हित में नहीं था | मैं चाहता था कि ये बच्चे भी अपनी अपनी बोतल भर के चले जाएँ तो मैं लगभग एकांत में फटाफट दो मग्गे पानी डालकर स्नान प्रक्रिया को किसी के आने से पहले ही पूरा कर लेता, इसलिए मैंने कहा, “पहले इन बच्चों को पानी भर लेने दो |” शायद गाँव में एकाधिकार नहीं होता | सिर्फ मैं अकेला हैंडपंप प्रयोग करूँ ऐसा नहीं होता | लेकिन बृजेश और उसके परिवार के प्रतिष्ठा और मान सम्मान इतना था कि जब मैं हैंडपंप के आधार की तरफ बढ़ा तो वहाँ उपस्थित लोगों ने मेरे लिए “आ जाओ ! आ जाओ !!” कह कर मेरे लिए स्थान खाली कर दिया और नीचे उतर कर थोड़ी दूर पर खड़े हो गए | हैंडपंप के नीचे एक पक्के प्लास्टर कराये हुए आधार को पानी निकासी के लिए बनाया गया होगा क्योंकि आस पास कच्ची मिटटी ही थी जहाँ इस पक्के आधार के होने के बावजूद पानी फैलने से कीचड़ जैसा फिसलन भरा स्थान हो गया था | इस गीले कीचड वाले स्थान पर कुछ कच्ची ईंटों को कीचड में धंसा कर एक तरफ से आने जाने का मार्ग बनाया गया था | हैंडपंप और इसका आधार बाकी जमीन से मामूली सी ऊँचाई पर था इसलिए हैंडपंप तक पहुँचने और उतरने के लिए थोड़े सावधानी पूर्वक पेर जमा कर आना जाना ज़रूरी था |

वो दो पुरुष जो अर्द्ध-स्नान कर चुके थे, वो अब अपने दांत साफ़ करने के लिए दातुन करने लगे और वो भी वहीँ खड़े हो गए बृजेश से थोड़ी दूर | बृजेश ने बच्चों से कहा, “लल्ला ! पानी भर लो ” और खुद हैंडपंप चला कर उनकी बोतलें भरवा दीं | शायद वो हैंडपंप किसी और के हवाले नहीं करना चाहता था ताकि अब हम लोग अपनी बारी लगा सकें | अपने साफ़ कपड़े मैंने बृजेश को पकड़ा दिए | दोनों बालक अपनी अपनी बोतल भर कर वहीँ रुक कर ऐसे मुझे हैंडपंप के आधार-क्षेत्र में प्रवेश करते हुए देखने लगे जैसे कोई entertainment show शुरू हो रहा हो | मुझे समझ नहीं आया कि क्यों उनको मेरे को हैंडपंप पर जाते हुए देखने का विचार आया | मेरे सिर पर कोई दो सींग अलग से नहीं थे | मैं भी उनके जैसा इंसान ही तो था | मगर शायद मेरे हाव-भाव या शायद बृजेश के यहाँ मेरे साथ होने की वजह से मैं उन सबके कौतुहल का विषय बन गया था | मैंने धीरे-धीरे, समय व्यतीत करने की कोशिश की ताकि दोनों बच्चे चले जाएँ पर वो तो वहीँ बुत बनकर मुझे ही देखने को रुक गए थे | मैं जीन्स पहन के ही नहाने के लिए जैसे ही बैठा, बृजेश बोला आप कपड़े तो उतार लो | इस पर दोनों लड़कों की हँसी छूट गयी और मुझे इससे और अधिक शर्मिंदगी महसूस हुई | “नहीं, मैं ऐसे ही नहा लूँगा !”, मैंने बोला | बृजेश ने अपने कपड़ों में से एक बिलकुल नया अंगोछा मेरी ओर बढाते हुए कहा, “आप यह लपेट के नहा लो |” बृजेश की बात से सहमति प्रकट करते हुए वो दोनों दातुन करते हुए महानुभाव भी अपने अपने विचार प्रकट करने लगे, “हाँ ! हाँ !!… आराम से नहाओ बाबु जी | शर्माते काहे हो | ठन्डे पानी से जी भर कर नहाओ | कौनो जल्दी नाही है | कपड़े काहे भिगोते हो | ख़राब हो जायेगे और बदबू और आने लगेगी |”

प्रजातंत्र है | जनमानस और बहुमत का प्रभाव मैंने भी महसूस किया | सबकी एक जैसी राय में रंगना ज्यादा आसान लगा, बजाय एक अलग सा नमूना बन कर पेश आने के | मैंने अंगोछा लिया, अपनी कमर पर लपेट कर जीन्स उतार कर नीच जमीन पर रखने लगा तो बृजेश ने हाथ बढ़ाकर जीन्स ले ली | बच्चों की “ही ही !” सुनकर अब मुझे टी-शर्ट उतारनी ही पड़ी पर फिर भी बनियान उतार कर पूरी छाती दिखाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई | मुझे तो टी-शर्ट उतार कर सिर्फ बनियान के जरिये भी अपनी बाहें, कांख, और कंधे आदि प्रकाशित करने में भी असहज महसूस हो रहा था | फिर बनियान से भी तो स्तन, पेट, नाभि, आदि के बनाव, उभार आदि स्पष्ट दिखते हैं, और सफ़ेद बनियान में से तो और भी आसानी से से “मैं ऐसे ही बनियान के साथ नहा लूँगा |”, मैंने बृजेश की ओर देख कर अपना फरमान सुना दिया | इस पर बृजेश ने सहमति में सिर हिला दिया और हैंडपंप चलाने लगा | शायद बृजेश भी अब मुझे और मेरी शर्मीलेपन को समझने लगा था | इतनी बातचीत सुन कर शायद आस पास के लोगों को अपने अपने घरों में बैठे बैठे बाहर एक विनोद प्रमोद का घटनाक्रम घटित होता हुआ प्रतीत हुआ होगा, या शायद बच्चों की हँसी की आवाज़ से उनको कौतुहल और अधिक हो आया होगा | अभी तक तो दो एक वयस्क और दो तीन बच्चे थे, पर धीरे धीरे लोगों का मजमा लगने लगा था हैंडपंप के आस पास और सब मुझे ही देख रहे थे |

बृजेश कपड़ों को पास के एक पेड़ की डाली पर लटका कर दोनों हाथों से तीव्र गति के साथ हैंडपंप चला रहा था जिससे कि पानी की स्पीड भी अच्छी आ रही थी | मैंने मुंह गीला कर के, ठन्डे पानी का स्वाद चखा | कुछ ज्यादा ही ठंडा लगा | मगर मुझे फिर भी पानी की ठंडक से ज्यादा दुष्कर मेरे चारोंओर जमा लोगों की भीड़ और उनकी घूरती नज़रें और होठों पर आती हुई हँसी लग रही थी | इस घटना के बाद से सफ़ेद सैनडोज़ बनियान मैंने पहननी बंद कर दी और रंगीन बनियान पहननी शुरू कर दी | सफ़ेद अंतर्वस्त्र भीगने पर इस कदर पारदर्शी हो जाते हैं यह इस घटना से पता लगा | यह तो अच्छा था कि नीचे मैंने लाल रंग का अंगोछा लपेट रखा था नहीं तो सफ़ेद अंडरवियर भीगने के बाद रोम-छिद्रों को भी छुपाने में नाकाम हो जाता है; फिर इतने उभार के साथ जननांगों या पिछवाड़े की चिपकी हुई त्वचा के साथ अंडरवियर पहना या न पहना दोनों बारबार थे | वो भी इन गाँव वालों की तरह देसी अंडरवियर या बॉक्सर नहीं, वी-आकृति में स्किन-टाइट फिटिंग के साथ ब्रीफ अंडरवियर |

“शहरी भैया कितने लजाते हैं |”, भीड़ में से निकले शब्द में कानों में पड़े तो मैं सकपका के रह गया | ऐसा लगा जैसे किसी ने दुखती रग पर हाथ रखा ही नहीं, मसल दिया हो | मैंने मुंह में साबुन लगा रखा था, आँखें बंद थीं तो पता नहीं चला कौन बोला | शायद उन बच्चों में से किसी की अवाज होगी या किसी महिला की | “भैया कितने गोरे हैं |”, दूसरी आवाज़ ठीक मेरे पीछे से आई | “लाओ, हम नहलाई देत हैं | रगड़ के पीठ भी साफ़ कराई देब |”, जैसे ही यह शब्द मेरे कानों में पड़े और कुछ क्षण बाद जब तक मुझे उनका अर्थ समझ आया (ग्रामीण भाषा से मेरा पहला शुरूआती तजुर्बा था सो समझने में थोड़ी देर लगती थी ), मैं हडबडा कर जहां बैठ कर नहा रहा था, वहीं खड़ा हो गया और आँखें खोल कर पीछे हटने की कोशिश करने लगा, “नहीं, नहीं ! … मुझे कोई हेल्प नहीं चाहिए | मैं खुद ही नहा लूँगा”, मैंने कहा पर मेरा उच्चारण अधिक स्पष्ट नही था क्योंकि जो पानी मैंने अभी अभी अपने सिर पर उड़ेला था वो धार के साथ साबुन मिश्रित जल मेरे मुंह में घुस गया था और आँखों में भी | आँखों में साबुन मिश्रित पानी घुसने से जलन होने लगी और आँखें खोलना मुश्किल हो गया | और बदहवासी में जो मैंने पीछे की तरफ कदम खींचे थे, उससे मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं गिरने लगा कि तभी किसी ने दोनों हाथों से मुझे थाम लिया | हाथों की पकड़ और हाथ दोनों मजबूत थे | “अरे ! अरे ! संभल कर | घबराओ मत | कोई नहीं आएगा |”, बृजेश की आवाज कानो में पड़ी | बृजेश ने मुझे अपनी बाहों में ऐसे मजबूती से पकड़ रखा था कि गिरते समय मैंने लगभग सारा भार उसके ऊपर ही डाल दिया था | मैं उसकी एक बाजू पर पीठ के बल लेटा हुआ सा था और वो बांह के सहारा देकर मुझे दोनों हाथो से थामे हुआ था | उसकी एक हथेली मेरी दूसरी तरफ की पसलियों पर थी और उंगलियाँ बनियान पर और अंगूठा और हथेली का कुछ भाग मेरी त्वचा को स्पर्श कर रहा था, जबकि दूसरी हथेली से उसने जोर से मेरी दूसरी बांह पकड़ कर मुझे गिरने से बचा लिया था |

मेरी हडबडाहट और गिरने की घटना से घबराकर किसी ने भीड़ से कहा – अरे काहे भैया को परेशान करते हो | काहे तमाशा लगा के रखे हो | कौनो आदमी को नहाते नहीं देखे हो का पहिले ? चला !… अपना अपना काम पे चला …. नहैई देई भैया का ! का फायदा कौनो चोट वोट लगे जाय …तो फिर ?” अब तक मैंने आँखें साफ़ कर के खोल के देखा तो बृजेश के घर पर जिस लड़के ने कल रात को खाना खिलाया था, वही वहाँ मौजूद लोगों को कह रहा था | उसके कहने पर लोग थोड़ा दूर तितर-बितर हो गए मगर फिर भी मुड़ कर मेरे को बीच-बीच में देखते रहे | बच्चे तो अब भी पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर आसन जमा के बैठे हुए लगातार मुझे ही देखे जा रहे थे, जैसे ये रंगारंग कार्यक्रम सिर्फ उनके मनोरंजन के लिए ही आयोजित किया गया हो |

स्नान प्रक्रिया पूर्ण करने के बाद थोड़ी कंपकपी सी होने लगी | पानी भी ठंडा था और सुबह सुबह कि हवा भी ठंडी थी | मुझे कांपते हुए देख कर बृजेश झट से भाग कर पेड़ पर टंगे मेरे कपड़ों से मेरा तोलिया और अपने कपड़ों में से एक और सूखा अंगोछा ले आया और मेरी तरफ बढाते हुए बोला, “जल्दी से बाल सुखा कर ये गीले कपड़े बदल कर, सूखे कपड़े पहन लीजिये नहीं तो ठण्ड लग कर बीमार न हो जाएँ” | मैंने पहले सिर पोंछा, बालों से टपकता पानी कम हुआ तो बाहें, पोछीं | बनियान उतारने का तो प्रश्न ही नहीं था | बृजेश समझ चुका था कि मैं ऐसे में कपड़े नहीं बदलने वाला था | उसने छोटू (जिसने रात को भोजन परोसा था) को बुलाया और दोनों ने मिलकर अंगोछे से मेरे चारों और कपड़े की दीवार बना दी और दोनों मेरी तरफ पीठ करके मुंह दूसरी ओर करके खड़े हो गए जिससे मैं बिना झिझक गीली बनियान उतार कर सूखे कपड़े पहन लूँ | बृजेश ने एक हाथ में मेरी सूखी बनियान भी पकड़ी हुई थी | अब मैंने ध्यान दिया तो बच्चों का झुण्ड लगातार मुझे देख कर प्रसन्न हो रहा था और लोग बाग़ भी बहाने से मुझे देखे जा रहे थे | संभवतः बृजेश से मुझे मिलने वाला यह special treatment देख कर सब हैरान हो रहे थे, नहीं तो मैं कोई चिड़ियाघर से आया नया अलबेला जंतु तो था नहीं कि सबका ध्यान अनायास आकर्षित करता |

बनियान बदल कर मैंने बृजेश से सूखा अंगोछा ले लिया ताकि मैं अंडरवियर बदल सकूँ| बृजेश ने मुझे हाथ पकड़कर, अपने हाथ का सहारा देकर उस दलदली कीचड़ वाले स्थान से बाहर निकलने में सहायता की | आज जब वो याद करता हूँ तो लगता है, शायद कुछ ज्यादा ही हो गया था | एक ‘शहरी गँवार’, गाँव के गँवारों से अधिक मूर्ख और नासमझ था जिसे नहाने धोने में भी दूसरों की सहायता चाहिए थी | खैर, अब बारी थी गीला अंडरवियर बदलने की | मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि यह इतना आसान नहीं था मेरे लिए जितना मैंने सोचा था | एक हाथ तो अंगोछे को सम्हालने में ही व्यस्त था और दूसरे हाथ से अपना गीला अंडरवियर उतारना या नया अंडरवियर पहनना – इसके लिए भी अभ्यास चाहिए होता है | नहीं तो दुर्घटना होने की प्रबल संभावनाएं हैं |

जैसे ही मैंने अपना वी-कट सफ़ेद अंडरवियर उतारा तो छोटे बच्चों में से एक कौतुहल पूर्वक पूछने लगा , “भैया आप ऐसी चड्डी पहनते हैं?” | इस छोटे शैतान के प्रश्न ने अनायास ही सबका ध्यान अब मेरे अंडरवियर की तरफ खींच दिया था | सबका इस तरह मेरे अंतर्वस्त्र, मेरे अंडरवियर को घूरना और हंसना मुझे बहुत बुरा महसूस करा रहा था | ऐसा लगा मानों मेरे को नग्न देख लिया हो सबने |

कपड़े (बनियान, नीचे सूखा अंडरवियर और उसके ऊपर सूखा अंगोछा लेता हुआ) पहन कर हैंडपंप से दूर जाकर मैं पेड़ के नीचे अपने और बृजेश के कपड़ों के पास, बच्चा पार्टी के पास खड़ा हो गया | छोटू अब हैंडपंप चला रहा था और बृजेश नहा रहा था | मेरे बार बार आग्रह करने पर भी बृजेश ने मुझे हैंडपंप चलाने नहीं दिया | हालाँकि अब गीले कपड़े बदलकर मैंने सूखे कपड़े पहन लिए थे और गीले बदन पर लगने वाली हवा की तरह हवा इतनी अधिक ठंडी नहीं महसूस हो रही थी, फिर भी थोड़ी सी ठण्ड और बीच बीच में रुक रुक कर होने वाली कंपकपी अभी भी चालू थी | वहाँ खड़ा-खड़ा मैं अपने बाल तौलिये से सूखता जा रहा था और बृजेश को नहाते हुए देख रहा था |

जिसको पूर्ण नग्न अवस्था में खेत में खुले आम भी कोई संकोच नहीं हुआ था, उसके लिए सिर्फ एक अंडरवियर पहन कर नहाना और अपनी पूर्ण सुगठित बलिष्ठ काया का प्रदर्शन करना कौन सी बड़ी बात थी ? और कहना पड़ेगा, उसकी त्वचा का रंग चाहे मेरे जैसा उज्जवल न भी हो, पर हर दृष्टिकोण से वो आँखों और मन का ध्यान अपने तरफ खीचने में पूर्णतः सक्षम था | चौड़ी छाती में हलके बादामी रंग के दो उज्जवल निप्पल, हलके मुलायम बालों से सुसज्जित छाती के बीच से निकलती रेखा जो नीचे ठीक नाभि के बीच से होकर जाती थी जैसे नदी की धारा अपने गंतव्य की तरफ जाती है, और पेट के दोनों तरफ 6 पैक जैसा आभासी उभार, वास्तव में किसी भी दृष्टा द्वारा की जाने वाली उसकी सुन्दरता की, शारीरिक बल-सौष्ठव की प्रशंसा से एक कदम अधिक ही बैठेगा | अपने बलिष्ट, मांसल, सुडौल बाहुओं को ऊपर उठा कर जब वो मग्गे से पानी अपने सिर पर उडेलता था तो दंड-बैठक से की गयी मेहनत उसकी बाहुओं की उभार-आकृति में साफ़ परिलक्षित होती थी जो उसको और भी आकर्षक और भरोसेमंद व्यक्तित्व का स्वामी घोषित करते थे |

उसका अपने मित्रों, प्रियजनों के छोटी से छोटी बातों और जरूरतों का ध्यान रखना, निस्संदेह उसकी आत्मिक सुन्दरता को प्रकट करता है जो शारीरिक सुन्दरता में कई गुना अधिक प्रभाव जोड़ देती है, क्योंकि बाहरी सुन्दरता तो सिर्फ भौतिक शरीर तक अपना प्रभाव पहुंचा पाती है, पर उसके विचारों की, जो दूसरों की छोटी-बड़ी ज़रूरतों को समझ कर उनकी सहायता, उनकी सेवा में समर्पित होता है, वो आत्मा के स्तर पर संबध स्थापित कर के “आत्मीय स्वजनों” की श्रेणी में शामिल हो जाता है | अब मुझे नहीं मालूम कि ऐसा विशेष ध्यान वो सिर्फ मेरा ही रख रहा है या यह उसका अपना स्वाभाव ही है | मैं तो इसको उसका स्वाभाव ही मानूंगा क्योंकि बनावटी, दिखावे की सेवा किसी न किसी लालच की, या सीमित अवधि की हो सकती है | हर क्षण, हर बार, हर अवसर पर सदा एकसमान नवयौवना की तरह नित-नूतन, उत्साहित भाव से रहने की प्रेरणा स्वभावगत ही हो सकती है जहां किसी प्रत्युत्तर की अपेक्षा न हो |

(क्रमशः …शेष अगले अंक में जारी …!)


बृजेश (भाग-११ ) : “धक्क !”


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रात को जो सोया, तो सोया | एक बारगी नींद थोड़ी खुली तो, लघुशंका का एहसास हो रहा था मगर देखा तो मेरे साथ ही एक बिस्तर लगा था, जिसपर बृजेश सोया हुआ था | लघुशंका का वेग इतना अधिक नहीं था कि मुझे ज्यादा परेशान करता लेकिन नीचे उतर के जाना ज्यादा बड़ी परेशानी का कारण था | बृजेश के होते हुए, छत पर भी करने का मन नहीं हुआ | मैं पुनः सोचते हुए सो गया |

सुबह तड़के उजाला होते ही बृजेश ने मुझे जगा दिया | समय तो मुझे पता नहीं, मगर सूर्योदय नहीं हुआ था पर दिन निकलने ही वाला था। अन्धेरा, शनैः-शनैः, शर्माती हुई नई दुल्हन की तरह सिकुड़ रहा था और प्रभात का उजाला अपना प्रभुत्व रात्रि की दुल्हन पर जमा रहा था | “सुप्रभात !”, बृजेश ने मधुर मुस्कान के साथ मेरा अभिवादन किया | “आशा है, रात्रि को आपको अच्छी नींद आई ! आप थोड़ा और आराम कर लें, इसलिए मैंने पहले नहीं उठाया लेकिन अब और देर करना ठीक नहीं है | आइये, शौच से निवृत्त हो आते हैं |”, कहते हुए बृजेश ने चलने का इशारा किया | बृजेश इस समय एक लुंगी और ऊपर बनियान पहने हुआ था | लुंगी ढीली ढाली से टेढ़ी मेढ़ी होती हुई लटक सी रही थी जैसे उसे अपने कमर पर लपेट कर बृजेश ने उस पर बहुत एहसान किया हो |

मुझे सुबह की शुरुआत बिस्तर पर चाय की चुस्की से होती है और उसी से मुझे शौच की हाजत भी होती है | लेकिन अब यहाँ तो वो सब हो नहीं सकता, और कहने में भी संकोच था | और फिर दिन का उजाला देख कर तो मुझे ऐसे भी डर लगने लगा था | फिर बृजेश ने कहा था “और देर करना ठीक नहीं है” तो उसकी बात को हलके में नहीं लिया जा सकता | मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ, फिर अपनी बाहर निकली हुई शर्ट को अपनी जीन्स के अन्दर डाल के अपने बालों को हाथ से थोड़ा “सेट” किया और बृजेश के पीछे पीछे चल पड़ा |

छत से नीचे आकर बृजेश ने मुझे एक क्षण रुकने को कहा और अन्दर से दो लीटर वाली कोल्ड्रिंक्स की दो बोतल ले आया | एक मुझे पकड़ाई और एक खुद ले कर चला | घर से बाहर निकलते ही, हम घर के पीछे के तरफ आवासीय बस्ती की ओर गए | घर के ठीक पीछे एक हैंडपंप लगा था | बृजेश ने चलाना शुरू किया और मैंने ताज़ा निकला पानी पीना शुरू किया | चाय के अभाव में पानी का प्रेशर भी काम कर जाता है | हैंडपंप के शोर के बीच कानों में पड़ती चिड़ियों की चहचाहट एक प्राकृतिक मधुर संगीत का आभास दे रही थी | बिलकुल शांत, ज्यादा लोग भी नहीं नज़र आ रहे थे – एक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर | बोतल धो कर वहां से पानी भर कर हम दोनों वापस घर की तरफ चले | किन्तु घर के अंदर ना जाकर, उसे पार कर के उसी ऊबड़ खाबड़ कच्चे रास्ते की तरफ चल पड़े जिधर से कल हम दोनों स्टेशन से घर आये थे |

मुश्किल से दस मिनट की पैदल दूरी पर हम रिहाईश से तो दूर पहुँच गए थे मगर अभी भी उन कच्चे पक्के मकानों के पीठ नज़र आ रहे थे | एक सपाट मैदान में पहुँच कर, जहां कुछ एक छोटी मोटी झाड़ियाँ थीं, बृजेश रुक गया | मैं भी ठीक उसके पीछे ही था | “आप यहाँ फ़ारिग हो लो !”, पीछे मुड़कर मुझे देखकर बृजेश ने कहा | उसका तात्पर्य था – शौच निवृत्ति के लिए यही खुले में दो-चार मरियल से झाड़ झंकार से ही काम चलाना पड़ेगा | ” यहाँ?”, मैंने चारों तरफ नज़र दौड़ाते हुए आश्चर्यजनित पीड़ा से संवेदित स्वर से पूछा | फिलहाल मैदान साफ़ था | हम दो लोगों के अलावा कोई और आस पास नज़र नहीं आ रहा था | कोई जंतु-जानवर आदि भी नहीं दिख रहा था | मगर मैदान बहुत साफ़ था | थोड़ी ही दूर पर पगडण्डी थी जो संभवतः आने जाने का प्रचलित मार्ग होगा | हालांकि जहाँ उसने मुझे बैठने को कहा था, वहां छोटी छोटी दो एक झाड़ियाँ थीं, लेकिन वो मेरी इज़्ज़त को ढकने के लिए पर्याप्त नहीं थी | मेरी इज़्ज़त का टोकरा और उससे संलग्न सब कुछ बेबाकी से सबके सामने प्रस्तुत था और किसी की गुस्ताख़ नज़रों को बहुत अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती | लेकिन चारों और देखकर मुझे भी एहसास हो गया की इससे अधिक की आशा रखना, अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारने के बराबर होगा क्योंकि एक तो दिन का उजाला तेजी से फैलना शुरू हो गया था और अब स्पष्ट दिन के उजाले को बस सूर्योदय का इंतज़ार था और दूसरे, घर से चलने से पूर्व जो पेट भर का पानी पी कर जो मैंने दिन का आरम्भ किया था, उसका दबाव अब प्रलय मचाने ही वाला था | और अधिक विलम्ब अब मैं नहीं कर था |

मुझे वहां छोड़कर, बृजेश पगडण्डी पार कर के परली तरफ करीब डेढ़-दो सौ मीटर दूर जा कर बैठ गया | मैं बृजेश का दूर जाने का इंतज़ार भी नहीं कर सका क्योंकि मेरे लिए संभव नहीं था | बृजेश के थोड़े दूर जाते ही मैंने एक उड़ती नज़र से चारों ओर देखते हुए अपनी जीन्स की बटन खोलकर झटपट अपना आसन ग्रहण किया | हालांकि काम निपटाना ज़रूरी था फिर भी मेरी नज़रें चारों ओर ऐसे बेचैनी से भटक रही थीं जैसे युद्ध के समय दुश्मन की सीमा तैनात एक सजग प्रहरी अपने प्राणों का मोह छोड़ कर अपने स्वजनों की रक्षा को उतावला रहता है | कहीं से, किसी भी समय, किसी के भी अवांछित प्रकट होने की प्रबल सम्भवना थी | इतने में मेरी नज़र मेरे सामने नेता प्रतिपक्ष की तरह विराजित बृजेश पर पड़ी और वहीँ अटक गयीं | बृजेश लगभग मेरे ठीक सामने ही बैठा था | उसने मुँह थोड़ा सा घुमा रखा था जिससे हम दोनों की सीधे एक दूसरे से नज़रें न मिलें पर फिर भी मैं उसको (और उसके प्रत्येक अंग को) साफ़ देख पा रहा था | संभवतः बृजेश को मेरी चिंता अधिक थी इसीलिए उसने (मेरा और मेरी आवश्यकता होने पर सहायता के लिए प्रस्तुत होने के लिए ) कुछ इस दिशा में बैठना तय किया होगा कि मुझे देख सके और मेरे संकेत पर प्रस्तुत हो सके | मैं तो झाड़ियों के झुरमुट के अंदर था पर वो बिलकुल साफ़ मैदान में बैठा था जहाँ कोई झाड़ियाँ क्या, कोई पौधे या घास फूस भी नहीं थे | वास्तव में ये सारा मैदान ही लगभग ऐसा था – एकदम सपाट | बस जहाँ मैं बैठा था, या यूँ कहें कि जहाँ मुझे बृजेश ने बिठाया था, वहीँ पर थोड़ी सी झाड़ियाँ थीं | अपने हमउम्र और चिर परिचित मित्रों में से किसी को पहली बार मैंने पूर्ण नग्न देखा था | और बृजेश का शिश्न (लुण्ड ) इतनी दूर होने पर भी अपने सुडौल आकार और लम्बाई की वजह से स्पष्ट ध्यान आकर्षित कर रहा था | बृजेश शायद जानबूझ कर मेरी ओर नहीं देख रहा था क्योंकि उसका मुँह थोड़ा दूसरी तरफ को था मगर मैं जिस तरफ मुँह करके बैठा था, वहां से ठीक सामने बृजेश था तो मुझे बृजेश को यूँ निहारने में हर्ष मिश्रित आश्चर्य हो रहा था और रोमांच भी | शायद …. एक कौतुहल था जो इस समय के प्रबल भाव-आवेग में भी अपना प्रभाव दिखा रहा था | इतने में सामने पगडण्डी से थोड़ी दूर पर हमारी तरफ को आती हुई दो महिलाएं दिखीं | सर पर घूँघट की आड़ किये हुए, पर फिर भी चेहरा दिख रहा था | मेरा दिल तो “धक्क !” से बैठ गया | बस इसी की कमी रह गयी थी |

लाग लपेट करने या भागने का समय नहीं था क्योंकि मेरा ध्यान उनकी तरफ तभी गया जब उनकी आपसी वार्तालाप और हंसी का शोर मेरे कानों में पड़ा, इतने में वो काफी करीब आ चुकी थीं और अब कोई और हरकत या उठ कर खड़ा होना इससे भी बड़ी बेवकूफी होती | हालाँकि मेरी हिम्मत तो नहीं हुई की मैं उनकी तरफ देखूं या नज़रें मिला सकूँ, लेकिन फिर से आती हुई हँसी की आवाज़ सुनकर, परिस्थिति का मूल्याङ्कन करने के लिए हिम्मत करके एक बार मैंने उन महिलाओं की ओर उड़ती हुई नज़रों से देखने की हिम्मत जुटाई | एक बार को देख कर थोड़ी राहत महसूस हुई क्योंकि वो शायद मुझे नहीं देख रही थीं | या देख कर भी अनदेखा कर दिया हो तो पता नहीं क्योंकि वो दोनों ऐसे बार-बार आपस में बड़बड़ा कर हंस पड़ती थीं की पता ही नहीं चल रहा था कब किस को देखा और कब किस बात पर हंसी ? ग्रामीण भाषा समझना तो ऐसे ही मेरे क्षमता से परे था | फिर मेरी नज़र बृजेश पर गयी तो मैं हक्का-बक्का रह गया | मैं तो झाड़ियों के अंदर था, चाहे जो भी हो, १०-२० प्रतिशत ही पर्दा हो पर कुछ तो था | वो तो पूरा नंगा बैठा था और उसकी मर्दानगी और यौवन का परचम हवा में लहराता साफ़ दिख रहा था | फिर भी उन महिलाओं के सामने से आते हुए या धीरे धीरे गुज़र कर जाते समय भी बृजेश बिलकुल ऐसे बैठा रहा जैसे कि वहाँ उस मैदान में उसके अलावा कोई और हो ही नहीं | न उसके चेहरे पर कोई असमंजस था, न ही कोई शिकन | महिलाओं के जाने के बाद, कोई और न आ जाय, इसलिए मैं फ़टाफ़ट निपट कर खड़ा हो गया और दो एक क्षण बाद बृजेश भी मेरी तरफ आता हुआ दिखाई दिया | महिलाओं वाली घटना और उसके अंग प्रदर्शन से किसी प्रकार की ग्लानि या किसी प्रकार का बोझ उसके मानस पर नहीं दिखा | उसका चेहरा ऐसे ही था जैसे कुछ भी असामान्य घटित ही न हुआ हो | बिलकुल जैसे एक बाल सुलभ निर्दोष मानस वाले बालक की भांति “चलें ?” कह कर मुझे अपने साथ वापस घर की ओर ले चला | शायद यह सब अब इन ग्रामीणों के लिए एक रोज़मर्रा की आदत बन गयी हो और अब इनकी चेतना में इन सब बातों की (जननांगो इत्यादि दृष्टिगोचर होने की ) कोई एहमियत ही न रह गयी हो, पर मेरे लिए तो, जिसने आज तक अपने घर पर भी कभी बचपन से आजतक अपने छाती न दिखाई हो, पूर्ण नग्न देखना या दिखना एक कुठाराघात के सामान था |

(क्रमशः …शेष अगले अंक में जारी …!)


बृजेश (भाग-१० ) : दृष्टिकोण


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दृष्टि उस अनुपम सौन्दर्य प्रतिमूर्ति से हटाने के बाद भी वो छटा मेरे मन-मस्तिष्क में प्रत्यक्ष की तरह ही दिखती रही | अपने सुध-बुध को सम्हालने में मुझे कुछ समय लगा | संभवतः मेरी इस अवस्था का एहसास बृजेश को नहीं हुआ होगा और वो अभी भी मुझे नींद की खुमारी में, अर्द्ध-चेतन अवस्था में होने के कारण घटित हुआ होगा, ऐसा मानकर मेरी घृष्टता को नज़रंदाज़ कर गया होगा |

“मुझे आने में थोड़ी देर हो गयी | आप भूखे ही सो गए | आइये, चलें भोजन कर लें |”, बृजेश ने बहुत विनम्रता से अपने अनुपम आतिथ्य से मुझे संकोच में डाल दिया | एक घर में जहाँ शादी -ब्याह का कार्यक्रम चल रहा है वहां सभी व्यस्त होते हैं | इतने में भी दुल्हा होते हुए भी, उसे मेरा ख्याल रहा कि मैं भूखा हूँ, या प्यासा हूँ | और यही काम तो घर के बाकी कोई अन्य सदस्य भी कर सकते थे, पर उसने स्वयं आकर मेरा मान और भी बढ़ा दिया |

भूख तो लगी थी | और यहाँ बेशर्मी से किसी अनजान व्यक्ति से कुछ कहने में भी संकोच हो रहा था | गाँव था, अगल बगल कोई दूकान नहीं थीं कि थोड़े देर को घूमने फिरने के बहाने बाहर निकला होता और पेट पूजा कर के आ गया होता | यह तो नज़ारा मैंने ऊपर छत पर आने के बाद ही देख लिया था कि अगल बगल, जहाँ तक नज़र जा रही थी, सिर्फ गाँव के कच्चे पक्के घर, बच्चे और जानवर ही प्रमुखता से विचर रहे थे | और उस समय तो उनकी दूध वाली चाय ही काफी थी, तृप्ति हो गयी थी | फिर थकावट के कारण जो आँख लगी, वो अब इस धवल चांदनी में इस देवदूत के स्वयं आकर जगाने पर खुली | भूख तो थी पर फिर भी, गाँव के कच्चे, धुल भरे, ऊँचे नीचे मार्ग पर इतना पैदल चलना, मेरे लिए पहली बार जिम जा कर, उत्साहपूर्वक तगड़ी मेहनत करने के सामन सिद्ध हो रहा था | मेरे पाँव की पिंडलियाँ जवाब दे चुकी थीं और अब तीन मंजिल उतर के जाना, मुझे भूख से ज्यादा कष्टकारी लग रहा था | मैंने चारों और नज़र दौडाई और दूर तक फैली बस्ती को प्रकाशित करती चांदनी ने साफ़ कर दिया था कि बिजली अभी तक नहीं आई है | नीचे जाता भी तो फिर सोने के लिए शायद ऊपर ही आना पड़ता नहीं तो नीचे की गर्मी में मेरा हाल बेहाल हो जाता और रात भर करवटें ही बदलता रहता |

“मित्र ! तुम कितनी चिंता करते हो? मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि दूल्हा खुद मेरी आव-भगत कर रहा है | ऐसा तो शायद ही कहीं सुना गया होगा | तुम व्यर्थ ही चिंता मत करो – मैं ठीक हूँ | और सब बताऊँ तो मुझे इस समय जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है – वो है इस स्वर्ग जैसी खुली हवा में, इस शीतल चांदनी में थोड़ी देर और सोने की |”, मैंने जो मन में था, व्यक्त कर दिया | छुपाना, या बातें बना कर बोलना मेरे स्वभाव में नहीं है |

“ऐसा कैसे हो सकता है? मुझे पूजा और बाकी कार्यक्रम में थोड़ा अधिक विलम्ब हो गया, और मुझे इसकी चिंता लगातार सता रही थी कि मैं बीच में उठ के आपके पास नहीं आ सका | मैंने छोटू को भेजा था थोडा नाश्ता पानी कराने के लिए आपको बुला लाय मगर आप शायद गहरी नींद में थे और उसकी पुकार आपको जगा नहीं सकी | इतने में खाना भी तैयार हो ही गया था तो मैंने सोचा खुद ही आपको लिवा लाता हूँ और अपनी गलती के लिए क्षमा भी मांग लूँगा |”, बाल-स्वाभाव, निश्चल बृजेश के मुख से यह सुनकर मैं संकोच में पड़ गया | शादी-व्याह समारोह में इतना आतिथ्य सत्कार, इतना ध्यान किसी मेहमान पर देना, न तो अपेक्षित होता है, न ही यह संभव हो पाता है | मैंने भी अपने सम्बन्धियों के विवाह समारोह में देखा है कितने काम होते हैं, और सब व्यस्त रहते हैं | हालाँकि, वहां शहर में तो सारी व्यवस्था का ठेका किसी और को सौंप के परिवार के लोग इस व्यवस्था-भार से मुक्त हो जाते हैं, पर यहाँ तो सब कुछ यह घर-परिवार के लोग और इनके परिचित लोग ही सम्हाल रहे थे | इतने पर भी इस भले मानुस को मेरा ही ख्याल रहा कि मेरी आव-भगत में कोई कमी न रह जाय |

“मैं भी आपके साथ ही भोजन लूँगा | मैंने भी स्नान के बाद से (दोपहर को जब हम घर पहुंचे थे तब ये महाशय स्नान करने जा रहे थे ) बस आप के साथ चाय ही पी हुई है |”, बृजेश ने मेरी ओर आग्रहपूर्ण निगाह से देखा | फिर मुझे चारों ओर निगाह दौड़ाते देख कर और शायद मेरी पस्त हालत को समझ कर, उसने दूसरा प्रस्ताव रखा | “अच्छा ऐसा करते हैं, मैं भोजन ऊपर ही मंगा लेता हूँ | दोनों यहीं एकसाथ भोजन कर लेंगे |”, इतना कह कर वो उस तरफ गया जिस तरफ घर का आँगन था और छोटू को आवाज लगा कर हम दोनों के लिए भोजन की व्यवस्था ऊपर ही करने को कहा |

“धत्त तेरे की | ये तो हद ही हो गयी | बजाय घर में कोई हाथ बटाने के मैं तो बिलकुल बोझ बन गया हूँ और फालतू कि खातिरदारी अलग से”, मुझे सही में संकोच हो रहा था | अनायास ही ये शब्द आत्मग्लानी में मेरे मुंह से निकले | मैंने बृजेश को सुनाने के मंतव्य से नहीं कहा था और न ही सोच समझ कर बोला था, पर फिर भी इस शांत वातावरण में जहां शहर की तरह शोर शराबा बिलकुल नहीं था, बृजेश को मुझसे थोड़ा दूर होने पर भी सुनने में कोई गलती नहीं हुई |

“अरे भाई ! कैसे बात कर दी आपने | आपने यहाँ आकर मेरा मान और आत्म-सम्मान कितना बढ़ा दिया है | मैंने आपके अलावा किसी और मित्र को नहीं बुलाया है | इस अवसर पर आपका मेरे साथ यहाँ होना ही मेरे लिए अमूल्य उपहार है | मैं कितने दिनों से सबसे (घर पर) कह रहा था – आपके आने पर समुचित व्यवस्था हो ताकि आपको कम से कम असुविधा हो | मैं जानता हूँ, शहरी वातावरण में, सुख सुविधाओं में पले-बढ़े व्यक्ति के लिए यह गाँव का रहन-सहन कितना दुष्कर और असुविधाजनक हो सकता है | और आप तो पहले भी इन सब बातों को सोच कर संकोच में थे फिर भी मेरा मान रख कर मेरे लिए, मेरे साथ देने यहाँ पधार कर मेरे मान-सम्मान में चार चाँद लगा दिए हैं | आप मेरे लिए इतना कष्ट सह रहे हैं | मैं तो आपको समय पर खाना भी नहीं खिला पाया | आप ऐसी बातें कर के मुझे शर्मिंदा मत करें |”, कहते कहते बृजेश मेरे पास आया और मेरे हाथ अपने हाथों में लेकर ऐसे भाव से बोला कि मुझे भी एहसास हो गया कि मेरे मुंह से निकले शब्द उसे कितनी ठेस पहुंचा सकते हैं |

हम अपने विचारों में होते हैं, तो हम जैसा सोचते हैं, करते हैं, हमें वही उचित प्रतीत होता है | लेकिन जब हम अपने आप से ऊपर उठ कर दूसरों के दृष्टिकोण को भी ध्यान में रख कर पुनः विचार करते हैं, तो हो सकता है कि जो हमें अभी तक सही लग रहा था, उसी में हमें अपनी गलती का एहसास होने लगे | कुछ ऐसी ही हालत मेरी थी | अभी तक मैं अपने आपको देख कर ही सोच रहा था | मगर अब मुझे दिखा कि वास्तव में यह मेरा नहीं बृजेश का संसार है | बृजेश – जो मेरे लिए अभी तक भूखा बैठा है, और अपने व्यस्तता के बावजूद उसको हर पल मेरी चिंता रही है | कार्यक्रम समाप्त होते ही, जैसे का तैसे भाग कर मेरे पास आ पहुंचा है जिससे मुझे और विलम्ब न हो और उस पर भी आत्म-ग्लानी से द्रवित हो रह है जैसे कोई अपराध किया हो | मैं तो आराम से सो रहा था, और अगर बृजेश ने जगाया न होता तो शायद मुझे आभास भी न होता कि मुझे भूख लग रही है | उसके समर्पण, उसके प्रेम के भाव के सामने मैं अपने आपको तुच्छ और नगण्य महसूस करने लगा |

“सही कर रहे हो तुम ! वैसे भी मैं मदद क्या करता? अधिकांश ग्रामीण भाषा और उच्चारण ही मेरे पल्ले नहीं पड़ते | सामने वाला क्या कह रहा है ऊपर से निकल जाता है | मुझे तो यह भी पता नहीं चलता कि मुझसे ही बात कर रहा है या किसी और की बात हो रही है | ऐसे में मैं मदद करने के बजाय सिरदर्द ज्यादा बन जाता |”, मैंने अपने बीच का वातावरण थोड़ा हल्का करने के लिए कहा, हालाँकि जो कहा था, वो भी सच था, फिर भी मेरे बात सुन कर हम दोनों कि हँसी छूट गयी |

इतने में सीढ़ियों की तरफ से आती हुई पदचाप ने हमारा ध्यान खींचा | सामने से छोटू और एक और युवक दोनों हाथों में थाली और कुछ सामग्री लिए हुए हमारी ओर आते दिखे | एक एक स्टूल हमारे सामने रख कर, उस के ऊपर दोनों के सामने भोजन की थाली परोस दी गयी | साथ में ताजे ठन्डे जल का (नलकूप का पानी ठंडा ही लगता है गर्मी में ) गिलास रख दिया गया | दाल शाक सब्जी की पहचान करना तो मेरे लिए शुरू से ही थोड़ा कठिन रहा है, पर सुगंध से भोजन अति रुचिकर प्रतीत हो रहा था | देशी घी की महक भी थी, साथ में अदरक और कटा हुआ सलाद, थोड़ी हरी चटनी, दो सब्जी रसादार, एक सूखी सब्जी जिसमें पनीर प्रतीत हो रहा है, और एक दाल और मोटे मोटे फुल्के | मैंने आग्रह कर के इमरजेंसी लाइट जो हमें सुविधा के लिए वो दोनों लड़के साथ लाय थे, ताकि हम अँधेरे की बजाय समुचित प्रकाश में खाना खाएं, बंद करा दी | एक तो उसका प्रकाश पतंगे, और मच्छरों को आकर्षित कर रहा था, दूसरा, चांदनी के तरह शीतल और आरामदायक नहीं था, आँखों में चुभ रहा था | भोजन के दौरान भी हमें नीचे से लाकर गरम गरम रोटी देने को दोनों युवक लालायित रहे | मेरे लिए तो एक फुल्का ही मेरी दोनों समय की खुराक के बराबर था, फिर भी बृजेश ने अति प्रेमपूर्ण आग्रह से मेरी थाली से मेरा एक फुल्का उठा के अपनी थाली में रख लिया और मुझे नीचे से अभी अभी आया गरमा-गरम फुल्का खाने को विवश कर दिया | प्रेम कि अति भी पेट में जा कर अपना असर दिखाती है | लेकिन फिर भी, मन को मिलने वाला आनंद उस से कहीं अधिक शक्तिशाली था | भोजन करा कर, हमारे हाथ धुला कर, दोनों युवक, फिर उसी तरह सब सामान, झूठे बर्तन आदि समेट कर वापस नीचे ले गए | मैं कम तला फला, कम मिर्च मसाले वाला, सादा भोजन करने के प्रति चिन्तित था, इसलिए मेरे लिए विशेष तौर पर फुल्के और कम मिर्च मसाले वाले व्यंजन बनाये गए थे और मेरे साथ बृजेश ने भी वही भोजन प्राप्त किया | बाकी लोगों के लिए शायद पूडियां कचौरियाँ आदि की व्यवस्था करायी गयी थी, पर मुझसे पूछने पर मैंने मना कर दिया था | मेरा भोजन घर के महिलाओं ने बनाया था, अन्य मेहमानों के लिए हलवाई के बने पकवान थे | अंत में परोसा गया हलवा, मगर मेरे पेट में अब उसकी खुशबु भी समा सके, इतनी भी जगह नहीं थी |

भोजन करा कर, मुझसे थोड़ी बातचीत कर के, बृजेश फिर नीचे जाने को प्रस्तुत था | जो बाकी के विधि-विधान और कार्यक्रम बाकी थे, उन्हें पूर्ण करना था | उसके पूछने पर मैंने यहीं ऊपर खुले में सोना ज्यादा सुकूनदायक बताया तो वो भी सहमत दिखा | नीचे की गर्मी और भीड़भाड़ में नींद में खलल पड़ता | “ठीक है ! मैं भी बाकी की विधियाँ निपटा कर डेढ़-दो घंटे में आपके पास सोने को आ जाऊंगा | तब तक आप आराम करो | कोई ज़रूरत हो तो छोटू को या मुझे आवाज़ लगा दीजियेगा |”, कह कर मुझसे विदा लेकर बृजेश पुनः वापस चला गया |

(क्रमशः …शेष अगले अंक में जारी …!)


बृजेश (भाग-९) : भव्य, दिव्य और अप्रतिम !


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मेरी तन्द्रा कुछ टूटी जब किसी ने धीरे से मेरे लात अपने हाथों से दबाते हुए, मेरा नाम पुकारना शुरू किया | ऐसा लगा वो काफी देर से मुझे जगाने का प्रयास कर रहा था | मैंने धीरे से आँखें खोल कर देखा तो बृजेश मेरे पैरों की तरफ बैठा हुआ मेरे पिंडलियों को हलके हाथ से दबा कर मुझे जगाने का प्रयास कर रहा था | मुझे बड़ा अजीब लगा जगाने का यह तरीका, हालाँकि उसके मद्धम-मद्धम दबाने से मेरे थकावट से दर्द कर रहे पैरों और पिंडलियों को बहुत आरामदायक मसाज का आनंद मिलने लगा था | बृजेश मेरा मित्र है, भला वो क्यों ऐसा काम करे? मुझे अति संकोच हुआ और हडबडाहट में मैं उठ बैठा और मेरे पैरों को पकड़े हुए बृजेश के हाथों को छुड़ाने लगा | वो नहीं माना तो मैंने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में पकड़ लिए | और उसको मेरे चरणों के पास से उठाने के लिए उसके हाथों को तनिक बलपूर्वक ऊपर खींचा | बृजेश भी मेरा मंतव्य और संकोच समझ के उठ खड़ा हुआ | बृजेश जो अभी शायद नीचे से अपना कार्यक्रम और पूजन पूरा कर के आया था, और एक सुनहरी चमकीली सी अर्द्ध-पारदर्शी धोती में बहुत अच्छा दिख रहा था | कंधे पर पीला जनेऊ, हाथ में लाल रंग की मौली के धागे, माथे पर पीले चन्दन का टीका जो छोटे छोटे बालों से ढके बृजेश के चौढ़े उज्जवल ललाट को और भी आकर्षक बना रहा था, वहीं उसके सिर पर अभी भी कुछ एक गेंदे के फूलों की पंखुड़ियाँ उसके रूप को सहसा निखार रही थीं | उसने धोती के ऊपर कुछ नहीं पहना था, बस एक अंगवस्त्र गले में लिपटा हुआ था, जो एक तरफ उसकी चौड़ी छाती को स्पर्श करता हुआ नीचे कमर की ओर लटक रहा था |

चाँद भी आसमान में निकल चुका था और उसकी धवल चांदनी तन, मन को शीतल कर रही थी और पहले से ही उज्जवल स्वर्णिम धोती में विद्यमान बृजेश को अपनी उज्जवल आभा में जगमगा कर एक दिव्यता का आभास प्रदान कर रही थी | हालांकि चांदनी का प्रकाश बहुत शीतल और उज्जवल था, और शहर की चका चौंध भरी कृत्रिम रौशनी, उस शीतल उज्जवल चांदनी को प्रताड़ित करने के लिए उपलब्ध नहीं थी, तो नैसर्गिक रात के गंभीर अन्धकार को चीरती हुई चांदनी समुचित प्रकाश-व्यवस्था प्रदान कर रही थी जो तन मन दोनों को शीतल करने में पूर्णतः सक्षम थी | इतने रौशनी में पास में खड़े हुए बृजेश की चौड़ी छाती, सुगठित लेकिन कोमल काया वाला शरीर, गंगा जी के धार में बनते हुए भंवर सी गंभीर नाभि, और उसके कुछ नीचे कमर पर बंधी धोती ने सहसा मुझे एकटक उसके अप्रतिम रूप को निहारने पर विवश कर दिया | यह पहली बार था जब बृजेश मेरे समक्ष स्पष्ट रूप से बिना वस्त्र / बनियान से ढकी हुई छाती के साथ प्रस्तुत था, वो भी इतना निकट कि मैं उसके श्वास-प्रश्वास के साथ अन्दर बाहर होती हुई उसकी नाभि और अपने ह्रदय की गति को एक तारतम्य में बंधा हुआ पाने लगा | मुझे कुछ ही क्षण में अपनी अनुचित और असहज करती हुई दृष्टि जो अभी भी बृजेश के रूप-पाश में बंधी हुई उसको निहार रही थी, का आभास हो गया, और तब मैंने अपनी दृष्टि वहाँ से हटाने का प्रयत्न किया तो मेरी दृष्टि को कमर में बंधी हुई उसकी पारदर्शी धोती ने अपनी ओर बलपूर्वक खींच लिया | धोती में से उसकी मांसल, सुडौल जंघा और नितम्ब का वक्रमय उभार साफ़ परिलक्षित हो रहा था, बस संदेह इसका था कि क्या इसने धोती के नीचे अंडरवियर भी पहना हो सकता है कि नहीं – क्योंकि धोती भी सुनहरी और पारदर्शी तो थी ही पर मुझे उसके नीचे से एकसार चमड़ी के रंग का ही आभास हुआ, किसी अन्य रंग के वस्त्र का अवरोध नहीं प्रतीत हुआ | फिर भी, ऐसे घूरना बहुत ही असभ्य और दुराग्रह पूर्ण दुस्साहस था – ऐसा आभास होते ही, मैंने तुरंत अपनी दृष्टि को बलपूर्वक वहां से हटाकर अन्यत्र निर्दिष्ट किया | अपनी इस ओछी हरकत के बाद उससे आँखें मिला पाने का साहस मुझे नहीं हुआ |

किसी व्यक्ति की सुन्दरता देखनी हो, तो उसका मन देखना चाहिए | यदि मैं बृजेश के साथ उसके घर, उसके गाँव आज न आया होता, तो मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि एक साधारण सा दिखने वाला अपना बृजेश, जिसे सभी संगी-साथी और सहपाठी “गाँव का छोरा” कह कर पुकारते रहे हैं, और उसकी सादगी का कई बार उपहास भी उड़ाते रहे हैं, वो इतना विशाल-ह्रदय का स्वामी है | उसकी सादगी की पराकाष्ठा तो देखिये, गाँव में इतनी ज़मीन-जायदाद, इतना रूतबा होते हुए भी, कभी भी अपने आचरण या अपने वाणी से उसने किसी को भी इसका आभास नहीं होने दिया | दिखावटी शोभा, फैशन से तो वो हमेशा ही दूर रहा है | रुपयों की कोई कमी नहीं होगी इनके परिवार में फिर भी ब्रांडेड प्रोडक्ट्स और महंगे “Labels” से अपनी पहचान बनाने की कोशिश कभी नहीं की उसने | उसे देख कर ऐसा लगता है, जैसे उसे भी इसका कोई आभास स्वयं भी नहीं है कि वो बाकी लोगों से अलग एक विशिष्ट व्यक्ति है, जो अपने धन-संपदा या पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से बाकी सब से श्रेष्ठ हो | एक अभिमान शून्य व्यक्ति ही इतना संयमित और विनम्र हो सकता है | मुझे ऐसे दिव्यात्मा मित्र को पाकर आज अपने भाग्य पर गर्व होने लगा | एक भला और सच्चा मित्र सबसे कीमती खजाना है जो किस्मत वालों को ही नसीब होता है |

सिर्फ एक यही बात नहीं थी जो मुझे बृजेश के व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित कर रही थी | उसके हर आचरण ने, हर पहलू ने, मुझे बृजेश को करीब से जानने का मौका दिया और जितना अधिक मैं उसे जान सका, उतना उसके प्रति मेरे ह्रदय में सम्मान के भाव प्रकट होते गए | सिर्फ मेरे प्रति ही नहीं, बृजेश वास्तव में हर एक व्यक्ति के प्रति उदार, उनके सुख दुःख का ध्यान रखने वाला और समय पर उनके काम आने तो तत्पर था | कभी किसी के प्रति उसे कठोर शब्द कहते नहीं सुना मैंने | मजाक में भी नहीं | मेरे लाख मना करने पर भी वो मुझे हमेशा “आप” से संबोधित करता रहा है जबकि मैं उसको बार बार कह चुका हूँ कि हम सम-व्यस्क मित्र हैं | हमारे बीच ये “फॉर्मेलिटी” वाला “आप” का संबोधन मुझे पसंद नहीं | मैं हमेशा उसे “तुम” कह कर संबोधित करता रहा हूँ, और वो हमेशा से ही मुझे “आप” कह कर | मुझे “विशेष” बनाने वाला उसका यह “आप” का संबोधन उसके भाव इत्यादि मुझे उसके विशाल ह्रदय के सामने नतमस्तक होने को बाध्य करने लगे हैं | उसने कभी भी स्वयं को बाकी अमीरजादों की तरह “हम” कह कर संबोधित नहीं किया | अपने लिए “मैं” का ही प्रयोग किया उसने सदा | दूसरों के बारे में सोचने, उनका ख्याल रखने की उसकी प्रवत्ति तो यात्रा से लेकर अभी तक हर पल नज़र आती रही है, चाहे मेरे लिए सीट का इंतजाम करना हो, या मेरी गर्मी से बचने के उपाय का – वो हमेशा मेरे सुख-सुविधा को लेकर इतना सचेत रहा है जितना कि मैं स्वयं भी नहीं हो सकता |

यौवन का अपना ही तेज, अपना आकर्षण होता है | एक ग्रामीण पृष्ठभूमी के युवक के लिए, जो शारीरिक श्रम में नियमित रूप से अपनी दिनचर्या का भाग बिताते हैं, एक सुगठित शरीर सौष्ठव होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं हो सकता | एक तो सुगठित शरीर, ऊपर से ऊँचा लम्बा कद, फिर यौवन का अपना तेजोमय आभामंडल – एक मधुर मुस्कान के साथ किसी भी प्राणी की चेतना और मन को अपने में समाहित करने के लिए पर्याप्त थे | मैं अभी अभी जगा था, थोड़ा नींद की खुमारी में था या वास्तव में ये विवाह-पूर्व के वातावरण का साक्षात्कार था, बृजेश किसी दिव्य देहधारी गन्धर्व, या देवता सा प्रतीत हुआ मुझे | ये वो प्रतिदिन जिससे भेंट होती रही है, वो वाला बृजेश बिलकुल भी नही लगा जिसे मैं आजतक देखता आया हूँ | एक तो मृदु सौम्य उज्जवल रूप लावण्य, ऊपर से मधुर स्नेहमय स्वाभाव | दोनों ही कारण अपने आप में पर्याप्त थे – इस भव्य, दिव्य, अप्रतिम स्वरुप और प्रिय सखा के प्रति मन में आकर्षण पैदा करने के लिए |

(क्रमशः …शेष अगले अंक में जारी …!)


बृजेश (भाग-८) : एक अजनबी से मुलाकात


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घर पहुँचने पर कोई विशेष स्वागत-सत्कार नहीं हुआ, न बृजेश का, न मेरा | बल्कि एक बार को मुझे लगा कि बृजेश शायद दूल्हा भी न हो क्योंकि उसके पहुँचने पर न किसी को कोई फर्क पड़ा न ही किसी ने उसकी आवभगत की | शायद मेरा यह सब सोचना भी अनुचित ही हो, पर मैं न सही, बृजेश तो इस समय विशेष था ही | या यह सब मुझे इसलिए अजीब लगा क्योंकि जब भी मैं दिल्ली से घर वापस आता था, तब जो विशेष आवभगत मेरे घर में मेरी होने लगती थी, मेरे माता-पिता, मेरे मित्र-मंडली सब की तरफ से मुझे तो बेइंतेहा प्यार और दुलार मिलता था, जो कि सामान्य दिनों से बहुत अधिक प्रगाढ़ होता था, इससे मुझे लगने लगा कि शायद हर घर में, हर व्यक्ति के साथ ऐसा ही होता होगा जो भी कुछ दिन घर से, परिवार से दूर रह कर घर लौटता है | कम से कम मुझे आशा थी कि ऐसा ही बृजेश के साथ होगा जब वो, होने वाला दूल्हा. लगभग एक हफ्ते बाद शादी के ठीक पूर्व अपने घर वापस पहुंचेगा | इस महत्वपूर्ण अवसर पर सभी को बृजेश की प्रतीक्षा होगी किन्तु यहाँ पहुँच के मुझे एहसास हुआ कि सब घरों में, सब के परिवार में ऐसा होना ज़रूरी नहीं था | सब अपने अपने काम में जैसे थे, वैसे ही व्यस्त रहे |

घर के आँगन में प्रवेश करने के बाद बृजेश मुझसे बोला, “आप एक मिनट यहाँ ठहरो!” और फिर सामने एक कमरे की ओर बढ़ चला | उसने अपने जूते बाहर उतारे और अन्दर जाकर एक महिला से कुछ बात चीत कर के फिर मेरे पास वापस लौट आया और बोला, “मैं माँ से चाय-नाश्ता बनाने को कह आया हूँ | आप चाहो तो थोड़ा मुँह-हाथ धो कर “फ्रेश” हो जाओ तब तक | अभी बत्ती (बिजली) नहीं है, और आने की उम्मीद भी नहीं है | अन्दर कमरे में अँधेरा और गर्मी बहुत लगेगी आपको इसलिए यहीं थोड़ी देर खुले में खाट बिछा देते हैं आपके लिए – अन्दर की गर्मी की अपेक्षा यहाँ ज्यादा आराम मिलेगा |”

बृजेश का घर गाँव शुरू होते ही ३-४ कच्चे मकान छोड़ कर बना हुआ एक मजबूत, पक्का ईंटों का बना हुआ विशाल मकान था | अगर बाकी आस पास के मकानों से तुलना करें तो आसानी से कोई भी बता सकता था कि गाँव में बृजेश और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति और “हैसियत” कुछ विशेष ही होगी | हलके नीले आसमानी रंग में रंगा हुआ, तीन मंजिला मकान अभी कुछ वर्ष पूर्व ही बना होगा | जब तक मैं घर को निहार रहा था, इतनी देर में मेरे लिए एक चारपाई पर दरी, फिर चद्दर बिछा कर मेरे बैठने का इंतजाम कर दिया गया | सामने लकड़ी के दो स्टूल रख कर उसमें जग भरकर लाल शरबत और दो गिलास, कुछ मिठाईयां जैसे बर्फी, गुलाब जामुन, नमक पारे, नमकीन और नमकीन मठरी, इत्यादि एक छोटा लड़का रख कर चला गया |

“मैंने आप का सूटकेस और बैग सामने अपने कमरे में रख दिया है, आपको जब किसी भी चीज़ की जरुरत हो, बेझिझक मुझे बताना |”, सामने से मेरी ओर आते हुए बृजेश मुझे देख कर बोला | “अरे ! अम्मा जी ! जरा मुंह हाथ धुलवाये के पानी भिजवाय देत”, बृजेश थोड़ी ऊँची आवाज़ में उसी कमरे की तरफ मुंह कर के बोला जिसमें वो पहले उन महिला से बात करने गया था | कुछ पलों में अपना चेहरा घूँघट में आधा ढके एक महिला हाथ में पानी से भरा जग लिए हमारे ओर लिए आयीं और पूछने लगीं, “काहे ? लम्बरदार नहीं आये तोहार संग?” अब बृजेश ने मेरी ओर देखा और बोला ये हमारी अम्मा जी (माता) हैं, और फिर उनको बताया, “नाही ! उनका कुछ देर लागी | अभे स्टेशन पर मिले रहे |” बृजेश ने शायद मेरी बात समझ के इस बार मुझे सचेत किया था ताकि मैं पुनः वही अपराध-बोध से ग्रसित होकर कुंठित न होने लगूं | मैंने उठ कर उनके चरण स्पर्श किये और साथ में बृजेश ने आकर उनके हाथ से जग ले लिया | उनके जाने के बाद हम दोनों ने एक एक कर के उस पानी से अपना हाथ मुंह धोया और बातों बातों में पता चला कि बृजेश के पिता ही गाँव के “लम्बरदार” हैं | पुराने अंग्रेजो के समय के जमींदारों की तरह ही लम्बरदार एक रसूख वाला पदनाम है जो गाँव में प्रचलित है |

शर्बत बहुत मीठा था, मुझसे एक घूँट पीने के बाद और पिया नहीं गया | मैं मीठे का शौक़ीन ज़रूर हूँ पर मुझे हल्का मीठा ही पसंद आता है | इतना तेज मीठा मुझसे खाया नहीं जाता जिसे खा के घंटों मीठा खाने का अफ़सोस हो | बृजेश के अनुरोध पर मुझे बर्फी का एक टुकड़ा लेना पड़ा पर बर्फी भी मुझे ऐसे लग रही थी जैसे दस गुना ज्यादा शक्कर डाली गयी हो | बृजेश के बार बार अनुरोध करने पर भी मुझे दोबारा कोई भी मिठाई “taste” करने का दु:साहस नहीं हो सका | इतनी गर्मी में तली हुई मठ्ठी या नमक पारे भी मैं नहीं ले सकता था | मुझे बार बार बृजेश के अनुरोध करने पर आत्मग्लानि होने लगी क्योंकि मेरे कुछ भी लेने से मना करने पर उसको मेरे “नखरे” और मेरी खातिरदारी में उसको अपनी तरफ से होने वाली कमी महसूस होने की प्रबल सम्भावना थी | बृजेश का मुंह उतर गया था | मैंने उसे समझाते हुए कहा कि मैं हल्का फुल्का. घर का सादा खाना खाने का आदी हूँ, तला-फला खा के पेट ख़राब हो जायेगा | आप मेरे लिए एक कप चाय, कम मीठे वाली बनवा दो और हो सके तो पारले जी या कोई भी ग्लूकोस के बिना अंडे वाले बिस्कुट जो भी उपलब्ध हों, वो चलेगा | मेरी इस “डिमांड” से बृजेश को शायद कुछ संतोष हुआ क्योकि उसका फीका होता हुआ चेहरा, एक बार पुनः मुस्कान से जगमगा गया था हालांकि अभी भी उसके चेहरे पर असंतोष के भाव भी स्पष्ट देखे जा सकते थे |

चाय क्या थी, गाँव के बिना पानी के खालिस दूध में चायपत्ती डाल के, इलायची, अदरक, दालचीनी आदि डालकर बनायीं गयी चाय किसी अमृत से कम न थी | सफ़र की थकान और सर दर्द एक दो घूंट पीते ही हलके होने लगे | हम दोनों ने चाय पी तब तक सांझ होने लगी थी | “अब मुझे आज के पूजन और कार्यक्रम के लिए तैयार होना है, आप भी चाहो तो नहा लो, हैंडपंप के ठन्डे पानी से ताजगी आ जाएगी |”, बृजेश ने सुझाया | मगर खुले में सबके सामने कपडे उतार के नहाना अपने आप में मेरी सिरदर्द बढ़ाने वाला कारण था | मेरे एक मित्र (मेरे दिल्ली वाले रूममेट) के अलावा आज तक मेरे माता पिता ने भी शायद ही कभी मुझे बिना बनियान के या मात्र अंडरवियर में देखा होगा | पूरे गाँव के लोगों के सामने, या बृजेश के सामने भी मुझे अपने कपड़े उतारने में शर्म और संकोच दोनों ही रोक रहे थे | मैं इस संकट की परिस्थिति से ही बचने के लिए गाँव नहीं आना चाहता था | पर मुझे उपाय सूझ गया | मैंने बृजेश को मना करते हुए बोला, “नहीं ! तुम नहा लो | तुम्हें शुद्ध हो कर पूजन में बैठना है | मैं तो मुंह हाथ धोते समय ही आधा नहा चुका हूँ | देखो अभी भी आधी टी-शर्ट गीली है | इसी से गर्मी भी नहीं सता रही | मुझे थोड़ी सिरदर्द भी हो रही है, इसलिए मैं कुछ देर लेट कर आराम कर लेता हूँ, शायद एक झपकी आ जाय तो कार्यक्रम शुरू होने से पहले मैं चुस्त-दुरुस्त हो जाऊंगा |”

बृजेश का पूरा ध्यान मेरी सहूलियत और आराम की तरफ था | उसे मेरी बात जंची | “तो फिर मैं ऐसा करता हूँ, सांझ होने को है, मैं आपके लिए ऊपर छत पर पानी छिड़का के, आपके लेटने के लिए गद्दे डलवा देता हूँ | ऊपर खुले में हवा भी अच्छी लगेगी और आपको यहाँ नीचे होने वाले शोर और भीड़-भाड़ से दिक्कत भी नहीं होगी | थोड़ी देर आराम करके जब आपको बेहतर लगे आप नीचे आ जाना |”, बृजेश ने सुझाया | मुझे इसमें क्या आपत्ति होने वाली थी? बृजेश ने एक लड़के को बुलाया और सब इंतजाम करने को कह कर खुद तैयार होने चला गया | मैं उसे थोड़ी थोड़ी देर अपने कमरे में आते जाते देखता रहा | शायद वो अपने नहाने की तैयारी कर रहा था क्योंकि अंतिम बार जब मैंने उसे देखा तो वो बनियान पहने, और कमर में अंगोछा लपेटे हुए था | करीब आधे घंटे वहीँ इंतज़ार करने के बाद वो लड़का मुझे लेने आया और मैं उसके पीछे पीछे छत पर चला गया |

मेरे छत पर पहुँचने से पहले ही उस लड़के ने अच्छी तरह पानी छिड़क कर छत को ठंडा कर दिया था | मुझे पहुंचा कर वो खुद अपना काम करने के लिए वापस चला गया | शादी वाले घर में मेहमानों को छोड़ कर कौन वेला हो सकता है? छत बिलकुल सपाट मैदान थी, वहां कोई कमरा नहीं था, न ही कोई दीवार थी, और न ही आस पास ऊँचे ऊँचे मकान, इस वजह से हवा के प्रवाह में कोई ख़ास अवरोध नहीं था | जहाँ से हम छत पर चढ़े, उसके बायीं तरफ की दीवार, अर्थात मकान के पीछे की तरफ दो घने पेड़ मकान को समीप से घेरे हुए ऐसे लग रहे थे जैसे वो मकान की पहरेदारी कर रहे हैं | मकान के पिछली दीवार एक तरफ नीम, दूसरी तरफ बरगद के बड़े से पेड़ से ढकी हुई थी | मगर शुक्र है कि हवा का रुख ऐसा नहीं था कि वे पेड़ उसके मार्ग में बाधा बनते और मुझ तक आने वाली हवा को रोकते | उस दीवार के साथ वाली तीसरी तरफ, जो शायद मकान और इस रिहायशी इलाके का अंतिम छोर था, वहां पीपल का बड़ा सा पेड़ मकान से थोड़ी ही दूरी पर था, और उसके पीछे बाकी पेड़ों की झुण्ड था जो एक दूसरे से थोड़ी थोड़ी दूरी पर थे | इस तरफ एक आध टूटी फूटी झोंपड़ी के अलावा कोई और घर नज़र नहीं आ रहे थे जिससे साफ़ था कि उधर रिहायशी इलाका नहीं है, हाँ, कुछ एक जानवर वहां ज़रूर चर रहे थे | चौथी दीवार, जो मकान के मुख की ओर थी, उधर ही मेरी लेटने के लिए रुई के मोटे मोटे दो गद्दे और उसके ऊपर एक साफ़ सी चद्दर बिछायी गयी थी | साथ में एक २ लीटर की कोल्डड्रिंक की बोतल में पीने का पानी भर कर रखा गया था | छत पर ऊपर चढ़ने के लिए भी लकड़ी की बनी हुई सीढ़ी थी, पक्की सीढियां नहीं थीं, इसलिए मेरे लिए छत पर आना जाना थोड़ा असुविधाजनक था | मैं लकड़ी की सीढ़ियों पर, सीमेंट की पक्की सीढ़ियों की तरह सुरक्षित महसूस नहीं करता | एक छोटी सी भूल भी पैर फिसलने पर खतरनाक चोट का कारण बन सकती थी |

मकान के हर मंजिल की ऊँचाई, शहरों की अपेक्षा अधिक थी अतः छत भी काफी ऊँचाई पर थी | छत से गाँव और आस पास का नजारा स्पष्ट नज़र आ रहा था | वास्तव में पूरे गाँव में बृजेश के घर जैसा विशाल, ऊँचा और पक्का मकान दूसरा नहीं था | ज्यादातर घर कच्चे मिटटी के बने हुए थे और कुछ एक ईंटों के बने हुए थे भी किन्तु उन पर भी छत खपरैल की या खरपतवार की बनी हुई ही थी और उनमें भी बहुत ही कम ऐसे थे जिनकी दीवारों पर प्लास्टर हो रखा था | कुछ एक मकान थे जिन पर रंग के नाम पर चूने की पुताई की गयी थी | बृजेश का घर, गाँव की रिहायशी सीमा की शुरुआत में ही था क्योंकि पीछे की तरफ देखने पर बाकी घरों का सिलसिला शुरू होता साफ़ दिखता था | हाँ, उन घरों की अपेक्षा बृजेश का घर खुला-डुला और काफी विस्तीर्ण था, जबकि बाकी मकान अधिकतर सटे-सटे और संकीर्ण से क्षेत्र में व्यवस्थित किये हुए लगते थे | शायद इसी वजह से, यह मकान इस जगह पर बनवाया गया होगा क्योंकि एक तो यह शहर जाने के मार्ग, रेलवे स्टेशन और खेत-खलिहान में जाने के लिए नजदीक पड़ता है, और दूसरा इतनी विस्तीर्ण क्षेत्रफल वाली खुली जगह बाकी गाँव में मुझे एक नज़र डालने पर नहीं दिखी |

छत पर जाते समय, तीसरी मजिल में मुझे सभी कमरों में सन्नाटा छाया हुआ दिखा था और हर कमरे में ताला लटक रहा था | शायद तीसरी मंजिल में किसी का निवास नहीं था | इसलिए छत पर मुझे किसी का हस्तक्षेप होने की सम्भावना नही लगी और पूर्णतः एकांत में मैं आराम से पैर फैला के लेट सकता था | बस, एक दिक्कत थी | जब से मैं अपने घर से चला था, दोपहर से लेकर अभी तक मैंने लघुशंका निपटाई नहीं थी | यात्रा के दौरान तो पसीना ही इतना बह चुका था कि पेशाब आया ही नहीं | मगर घर पहुँचने के बाद दो गिलास पानी और ऊपर से करीब आधा गिलास चाय पीकर अब मुझे जोर का पेशाब लग रहा था | दिक्कत ये थी कि मुझे पता नहीं था कि टॉयलेट कहाँ बनी थी …और घर में बनी भी थी या नहीं इसका भी कोई अंदाजा नही था | तीसरी मंजिल में मैं पहले ही सभी कमरों में ताला लटका हुआ देख चुका था | सूर्यास्त लगभग होने को था | ऐसे में तीन मंजिल नीचे उतर के जाना और फिर अँधेरा होते होते वापस इन लकड़ी की सीढियों से चढ़ना भी मेरे लिए समस्या का कारण था | एकांत का फायदा उठाते हुए, मैंने लघुशंका का निराकरण यहीं ऊपर छत पर ही करने का निर्णय लिया | तीसरी तरफ की दीवार जिधर पीपल का पेड़ और अन्य पेड़ों का झुण्ड था, और रिहायश या लोग नहीं थे, उसी तरफ की छत के कोने में मैंने अपने आपको हल्का किया और वापस अपने बिस्तर पर आकर लेट गया |

सांझ समय के ठंडी हवा के झोंकों के बीच मुझे सुस्ती आने लगी | बृजेश का सुझाव बिलकुल सही था क्योंकि नीचे अँधेरा होने के साथ साथ जलाई गयी मोमबत्ती या लालटेन या संभवतः दिए की मद्धम सी रौशनी में बहुत सी महिलाओं का गाँव की भाषा में गाया जाने वाला गीत, और एक रस में बजती हुए ढोलक की थाप मुझे नहीं भाने वाली थी | यहाँ तक की तीसरी मंजिल की छत पर भी मुझे वो “शोर” शांत होने का इंतज़ार था | हालांकि छत पर हवा अच्छी बह रही थी, और नीचे मकान के पीछे की तरफ खुले आकाश के नीचे खेलते बच्चों का शोर भी, नीचे बजती ढोलक और महिलाओं के संगीत के मद्धम स्वर के साथ छत तक आ रहा था पर फिर भी सहन करने लायक था |

मैं न तो कुछ समझ पा रहा था कि क्या गाया जा रहा है, न ही मुझे यह संगीत कर्णप्रिय लग रहा था | पंजाबी पॉप, बॉलीवुड और हॉलीवुड के संगीत के आगे, गाँव की अनबूझी बोली में, चिल्ला-चिल्ला के गाये जाने वाली महिला संगीत की मैं क्या तारीफ करूँ? मैं बस अपने बिस्तर में लेट कर आँख बंद करके पहले तो इस शोर को समझने का और फिर बिना लय-ताल के एक रस में बजती ढोलक के बंद होने का इंतज़ार करने लगा क्योंकि काफी देर तक प्रयत्न करने पर भी मैं उनकी भाषा और शब्द पकड़ने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था |

अँधेरा होने लगा था | बिना बिजली की रौशनी के आसमान भी कितना साफ़ दिखता है | आसमान में इतने सारे तारे एक साथ, बिना टेलिस्कोप के भी नज़र आ सकते हैं, यह मुझे आश्चर्यजनक और आकर्षक लग रहा था | साफ़ आसमान और खुली हवा के नज़ारे शहरों में किस्मत वालों को ही शायद नसीब होते होंगे | ये अँधेरा भी अच्छा लग रहा था | अँधेरा होने के साथ साथ बाहर खेल रहे बच्चों का शोर भी थम गया था | सिर्फ नीचे से महिलाओं के संगीत की आवाज़ आ रही थी | मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं थोड़ी देर एक झपकी लेने के इरादे से | तभी एक मंद मंद सी महक ने मुझे पुनः सचेत किया | महक आनंददायक थी | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बहुत से फूलों की ताज़ा खुशबु बिखर गयी हो और आस पास चन्दन के पेड़ों को स्पर्श करके हवा चन्दन की शीतलता और खुशबु अपने साथ ले आई हो | मुझे लगा शायद नीचे पूजा पाठ के लिए कोई धूप या अगरबती की वजह से ये खुशबु आ रही होगी, मगर भूतल पर लगभग डेढ़ दो घंटे से चल रहे कार्यक्रम का असर अचानक से अब कैसे शुरू हुआ? पहले क्यों ऐसी खुशबु नहीं आई? और फिर तीन मंजिल पार कर के छत तक अगरबत्ती की फूलों की महक, यदि ऐसा संभव होता भी, तो भी इतनी स्पष्ट, इतनी तीव्र नहीं हो सकती थी | इस अप्रतिम मादक महक के वशीभूत होकर मेरे अंग शिथिल होने लगे और मैं आराम की अवस्था में अर्द्ध-चेतन सा हो गया | मैं जाग रहा हूँ, ऐसा आभास हो रहा था मगर मुझे आँखें खोलने का मन नही हुआ | श्वास की गति भी शांत और धीमी होने लगी जैसा सोते समय होता है | तभी सीढ़ियों की तरफ से पायल की खनक ने मुझे सचेत किया | मैंने आँख खोल कर देखा तो सीढ़ियों के पास एक नवयौवना धीमी गति से टहल रही थी | अँधेरे में चेहरा तो देख पाना मुश्किल था मगर उसके श्वेत उज्जवल कपड़ों ने पीठ पर लहराते हुए काले लम्बे बाल, जो उसकी कमर को छू रहे थे, स्पष्ट नज़र आ रहे थे | उसका मुंह मुझसे विपरीत बाहर की तरफ था और पीठ मेरी तरफ और वो छत से बाहर नीचे गाँव के बाकी घरों की तरफ देख रही थी | पहनावे से, रूप रंग से किसी संभ्रांत परिवार की महिला लग रही थी | श्रृंगार के नाम पर ज्यादा कुछ नहीं था पर हाथों में कुछ कंगन और चूड़ियाँ थीं, गले में संभवतः कोई हार, और कानों में कपड़ों से मेल खाते मोटी मोतियों से युक्त कर्णफूल | उसकी चलने कि गति इतनी सधी हुई थी मानो नीचे से आती ढोलक की ताल के साथ उसकी पायल अपना संगीत मिलाकर एक मधुर राग उत्पन्न कर रही थी | अभी तक बेसुरी सी लगने वाली ढोलक की थाप, अब उसकी पायल की खन-खन के साथ एक कर्णप्रिय संगीत होने का एहसास दिलाने लगी |

मैं अपने गद्दे के बिस्तर पर ही उठ के बैठ गया | किसी महिला के आस पास होने पर ऐसे बेसुधी में लेटना वो भी एक अजनबी व्यक्ति का, बृजेश के परिवार और गाँव वालों को अभद्रता का एहसास करा सकता था | बैठ कर मैंने अपने बाल और अपने कपड़े ठीक करने शुरू किये कि तभी वो महिला पीछे पलटी, उसने मेरी तरफ एक क्षण को देखा और फिर तेजी से वापस सीढ़ियों की तरफ चली गयी | मैं वहीँ बैठा बैठा उसके सीढ़ियों से उतरने के साथ धीमी होती पायल की मधुर आवाज़ सुनता रहा | कुछ पलों में फिर वही बेसुरी ढोलक की थाप मात्र रह गयी और वही चिल्लाती हुई महिलाओं का कर्णभेदी संगीत ! उसके जाने के साथ ही वो मादकता फ़ैलाने वाली, चन्दन मिश्रित फूलों की खुशबु भी धीमे धीमे गायब हो गयी | शायद वो उसी महिला के इत्र की खुशबू रही होगी | संशय था कि क्या कोई इत्र भी इतना प्रभावी, इतना मादक हो सकता है कि खुले वातावरण में इतनी दूर तक उसका असर महसूस किया जा सके या यह मेरी थकावट का और आधी अधूरी नींद का असर था? इन्ही सब गहन विचारों में अपने को और उस घटना के प्रभाव को समझने के असफल प्रयास में थक कर, मैं पुनः निद्रा-देवी के आगोश में शांत होकर अपनी सुध-बुध भुला बैठा |


बृजेश : घर एक मंजिल !


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अपना अपना सामान पकड़े हम दोनों रेलवे स्टेशन से बाहर निकले | सामने खेत-खलिहान की लम्बी कतारें थीं मगर ज्यादातर में सिर्फ फसलों की बजाय सिर्फ मिट्टी ही दिख रही थी | शायद बीज बोने का समय रहा होगा या पुरानी फसल काटी गयी होगी | मुझे कृषि के बारे में कोई जानकारी नहीं है इसलिए बता नहीं सकता क्यों खालीपन सा नज़र आ रहा था | हालाँकि मेरा सूटकेस पहिये वाला, ट्रौली वाला था मगर कच्ची उबड़-खाबड़ जमीन पर उसे धकेल के ले जाना आसान नहीं था | बार बार उसका संतुलन बनाये रखने में और असंतुलित होने पर पलट कर सीधा करने में मुझे रुकना पड़ता था | परिणामस्वरूप, स्टेशन की बिल्डिंग से बाहर आते-आते मैं बृजेश से काफी कुछ पिछड़ गया था |

स्टेशन की बिल्डिंग के मुख्य-द्वार से निकलते ही, मैंने बृजेश को ढूंढना शुरू किया और देखा कि सामने थोड़ी दूर पर एक ईंटों के चबूतरे पर घुटने मोड़ कर अकड़ू बैठे एक आदमी से बृजेश कुछ वार्तालाप कर रहा था | वो एक दुबला पतला सा आदमी था, देखने में बृजेश से थोड़ा कमजोर ही था शरीर-सौष्ठव में | उम्र में शायद बृजेश से दस-बारह वर्ष अधिक वय रही होगी उसकी | एक नीली-बादामी रंग की बड़े बड़े आकार के चैक वाली शर्ट के नीचे गहरे भूरे रंग की पैंट और पैरों में चप्पल, जिसमें से धूल-धूसरित उसके मटमैले, फटे हुए से पैर साफ़ बता रहे थे कि वो महाशय इसी तरह गाँव की कच्ची मिटटी में अपने पैरों को अक्सर रगड़ते रहने के आदि होंगे | जूते पहनना उनके स्वाभाव में नहीं रहा होगा | एक हाथ में एक काले रंग की लकड़ी की बेंत पकडे हुए, दूसरे हाथ से बीड़ी का कश लगते हुए बृजेश से बातें कर रहे थे | अपना सूटकेस लेकर जब मैं उनके सम्मुख, बृजेश के पीछे खड़ा हुआ तो एक उड़ती सी नज़र से उसने मुझे देख कर नज़रंदाज़ करते हुए, बृजेश से अपना वार्तालाप समाप्त करते हुए कहा , “ठीक है ! अम्मा घर पे ही हैं | तुम पहुँचो |” बृजेश ने मेरी ओर देखा और बोला, “आइये चलें” और हम दोनों एक पलती पगडण्डी की ओर चल पड़े जो खेतों के बीच से होती हुई दूर कहीं लेकर जाती थी |

थोड़ा आगे चलते ही बृजेश ने मुझसे मेरा सूटकेस लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो मैंने फिर आनाकानी की | घर से चलते समय मैंने सोचा तो था कि शायद स्टेशन पर कोई कुली मिल जायेगा जो बाहर किसी टेम्पो, या रिक्शा तक मेरा सामान रखवा देगा और फिर घर पहुँच कर मैं आराम से उसे उतार के रख लूँगा, मगर यहाँ न तो कोई कुली था, न कोई रिक्शा या अन्य कोई वाहन | खुद अपना सामान ढो कर पैदल चलना पड़ेगा, अगर ऐसा पहले पता होता तो मैं कपड़े और सामान कम लाता | “आप अपना सूटकेस मुझे दे दीजिये मैं आसानी से दोनों ले कर चल सकता हूँ | मुझे सेना में रोज इसी तरह कसरत करने कि आदत सी हो गयी है | मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी | और फिर मैं ठहरा गाँव का छोकरा, ये तो कुछ भी नहीं हम तो क्विंटल भर के बोरा-कट्टा ले कर एक गाँव से दूसरे गाँव तक आया जाया करते हैं | आपका सूटकेस तो उसके आगे कुछ भी नहीं | अभी एक-डेढ़ किलोमीटर हमें पैदल ही चलकर जाना पड़ेगा |” बृजेश के समापन-वाक्य से मेरी रही सही हिम्मत टें बोल गयी | अभी तो मुश्किल से १०० गज ही चल होऊंगा और इतने में ही मैंने हाँफना शुरू कर दिया था क्योंकि अपने सूटकेस के साथ मुझे थोड़ी थोड़ी देर में कुश्ती से कम मेहनत नहीं करनी पड़ रही थी | ऊपर से जोर लगाने से जो उर्जा क्षय हो रहा था, उससे गर्मी के मौसम में खुले खेत-खलिहानों में से बहकर आने वाली हवा के झोंकों के बावजूद मैं पसीने से तर-बतर हो रहा था | “अभी डेढ़ किलोमीटर और” सुनकर जैसे मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक सी गयी थी | मैं अच्छी तरह जानता था कि मेरी इनती सामर्थ्य नहीं थी | फिर मैंने बृजेश की ओर देखा – उसका कसा हुआ बदन, कद-काठी, और उर्जा, उसके शब्दों की गवाही दे रही थी | उसके ये सब बोलते हुए उसके चेहरे पर जो हमेशा की तरह मधुर मुस्कान थी, वो मेरे संकोच को दूर करने में और मुझे आश्वस्त करने में सक्षम थी | “अच्छा तुम अपना बैग ही मुझे पकड़ा दो | तुम सारा बोझ ढो और मैं खाली हाथ चलूँ, ऐसा कैसे हो सकता है भला?”, मैंने अपनी राय सामने रखी | मगर, बृजेश नहीं माना और उसने मुझसे मेरा सूटकेस भी ले लिया यह कह कर कि इससे हम दोनों तीव्र गति से चल सकेंगे और जल्दी घर पहुँच सकेंगे |

“भईया आपको लिवा लेने के लिए स्टेशन आने वाले थे बाइक पर, मगर अभी पिता जी से पता चला कि कुछ ज़रूरी सामान लेने उनको शहर जाना पड़ा | अब हमें पैदल ही जाना पड़ेगा |”, बृजेश ने चलते-चलते बताया | मुझे हैरानी हुई | बृजेश ने सब पहले से ही योजनाबद्ध होकर बंदोबस्त कर रखा था कि मुझे किसी भी प्रकार कि असुविधा न हो | मुझे पैदल न चलना पड़े, यह भी वो पहले ही सोच कर इंतजाम करके आया था | मगर शादी वाले घर पर भागदौड़ तो लगी रहती है – कभी ये सामान तो कभी वो सामान लाने का जिम्मा घर के पुरुषों को ही सौंपा जाता है | ऐसे में बृजेश के प्रयत्न के असफल होने के बावजूद मुझे बृजेश जैसे सौहार्दपूर्ण, संकोचमय, और धीर-घम्भीर मित्र पाकर आपने भाग्य पर और खुद पर गौरवान्वित होने का एहसास होने लगा |

“रुको एक मिनट ! तुम्हारे पिताजी से तुम्हारी बात कब हुई?”, मैंने आश्चर्य चकित होते हुए पूछा | ऐसा नहीं था कि मुझे बृजेश के ऊपर असत्य बोलने का संदेह था, मगर मैं जानना चाहता था कि पूरे समय जब हम दोनों साथ साथ थे तो मैंने उनके पिता जी को कैसे नहीं देखा और उनका अभिवादन न कर पाने पर वो मुझे कहीं गलत संस्कारों वाला अकडू शहरी लड़का न मान बैठे हों | “अरे ! आप जब स्टेशन से बाहर आये थे तो मैं पिता जी से ही तो बात कर रहा था |”, बृजेश ने संशय दूर करते हुए बताया | “धत तेरे की !”, मैंने अपने आप को कोसा | वो जो सज्जन, ईंटो के चबूतरे पर बैठे हुए, बीड़ी पीते हुए बृजेश से बात कर रहे थे, वो ही बृजेश के पिता थे | मगर पिता पुत्र में १०-१२ साल का ही फर्क होगा, ऐसा मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था | मुझे लगा था कि कोई पड़ोसी या कोई मौसी का लड़का या अन्य कोई रिश्तेदार होगा | या शायद मुझसे ही उम्र का सही अंदाज़ा लगाने में गलती हुई हो | मगर वो किसी भी हालत में 35 वर्ष से ऊपर की आयु के नहीं लगते थे | कुछ लोग होते हैं जिनकी उम्र उनकी वास्तविक उम्र से कम लगती है, वो जवान लगते हैं | यही सब सोचते सोचते मैंने बृजेश से बोला, “तुम्हें मुझे बताना चाहिए था | कम से कम मैं उनको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद ही ले लेता | अब वो मेरे बारे में क्या सोचते होंगे ? तुमने सुना ही होगा …The First impression is the last impression”, मैंने अपनी दुविधा का कारण सामने रखते हुए बृजेश से शिकायत भरे लहजे में कहा | “अरे ! आप चिंता मत करो, यहाँ कोई इतना ध्यान नहीं देता है | गाँव है, सब ऐसे ही रहते हैं – सादगी से | ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं है | घर चल कर मिल लेना आप पिता जी से |”, बृजेश ने मेरा संताप कम करते हुए आश्वस्त करने का प्रयास किया | थोड़ी देर में, सामने से दो मोटरसाइकिल सवार आते हुए दिखे और हमारे पास आकर रुके | बृजेश उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और फिर एक बाइक के पीछे मैं और दूसरी में बृजेश को बैठा कर हम सब घर की ओर अग्रसर हुए | बृजेश के चचेरे भाई की अनुपस्थिति में, जिसे हमें लाने की जिम्मेदारी दी गयी थी, किसी और को ढूँढने में थोड़ा समय तो लगता ही है और इतने समय में हम करीब आधी दूरी तय कर चुके थे | अब भी हमारी मंजिल लगभग आधा किलोमीटर दूर थी और इतने सामान को ढो कर पैदल जाने से, किसी सवारी में बैठ कर जाना निश्चय ही उचित निर्णय था |