बृजेश : जादू शब्दों का

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अपने बताये गए तय समय के अनुसार, बृजेश ठीक समय पर मुझे लेने के लिए उपस्थित हो गया | समय की पाबंदी और समय का महत्त्व हम लोग जानते हैं, पर उनका अनुशासन-पूर्वक दृढ़ता के साथ अपनी दिनचर्या में शामिल होना, आप किसी फौजी की जीवन शैली में ही देख पायेंगे | जब बृजेश मुझे लेने पहुंचा, तब मैं अपना सामान, कपड़े इत्यादि पैक करने में लगा हुआ था | मुझे आशा थी कि फटाफट आधे घंटे में सब पैक कर लूँगा मगर जब शुरुआत की तो समय कैसे पंख लगा कर उड़ता है, यह प्रत्यक्ष देखने को मिला | आधा घंटा कब एक, फिर डेढ़, और फिर २ घंटे में बदल गया, मुझे खुद को भी पता नहीं चला और सारा सामान, कपड़े इत्यादि जो पैक करने थे, वो ऐसे ही अस्त-व्यस्त बिस्तर पर पड़े थे | सबसे अधिक असमंजस तो यह था कि समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या क्या ले कर जाऊं और क्या छोड़ू? एक छोटी इस्त्री (Iron Press) कपडे इस्त्री करने के लिए रखी थी, मगर जब वहाँ बिजली ही नहीं होती तो उसे ले जाने का फायदा ही क्या? और एक गाँव में कोट-पैंट, वो भी बिना इस्त्री के पहनने का कोई औचित्य ही नहीं था | शादी जैसे अवसर पर टी-शर्ट पहनना बहुत ही अजीब लगता | फिर किस रंग के शर्ट के साथ कौन सी रंग की पतलून रखी जाय, जो जल्दी धुल मिटटी में गन्दी भी न हो, और जंचे भी, और गर्मी के मौसम के हिसाब से, बिना बिजली /पंखे के माहौल के अनुकूल रहे, यही सब सोचते सोचते समय बीत गया |

द्वार की घंटी बजी, मम्मी जी ने द्वार खोल कर आगंतुक का स्वागत किया और फिर मुझे आवाज लगा के बुलाया, “बृजेश बेटा आ गया ! तुम अभी तक तैयार नहीं हुए?” फिर मुझे उनके शब्द सुनाई दिए, वो बृजेश से कह रही थीं, “वो अपने कमरे में है | जाओ तुम वहीँ जा कर उससे मिल लो और उसकी मदद कर दो सामान पैक करने में नही तो देर हो जाएगी | मैं तब तक चाय-नाश्ता लाती हूँ |” अधिकांशतः मेरे कमरे में किसी को भी नहीं भेजा जाता और मैं अपने कमरे में निश्चिंत होकर रहता हूँ पूरी गोपनीयता और स्वतंत्रता के साथ | अब जब एकदम से बृजेश के मेरे कमरे में आने के बारे में सुना तो अस्त-व्यस्त सामान और कमरे की हालत देख कर मुझे बहुत संकोच हुआ और शर्म भी आयी | अपने कमजोरी किसी बाहर वाले के सामने आने पर शर्म आना स्वाभाविक ही है | पर बृजेश का आना सार्थक ही सिद्ध हुआ, क्योंकि उसने फटाफट मेरी दुविधा का निराकरण करते हुए, आवश्यक सामान पैक करने में मेरी मदद की | “इतनी गर्मी में सूट की आवश्यकता नहीं है”, “आप अपना पसंदीदा इत्र यदि रखना चाहें तो रख लीजिये”, “मोबाइल चार्ज करने के लिए पॉवर बैंक साथ ले लीजिये”, आदि उसकी महत्वपूर्ण सलाह थीं जो मैं अपनी उधेड़बुन में भुला बैठा था, उस सब सामग्री को उसने जल्दी जल्दी पैक करने में मदद की | फिर चाय पीकर हम दोनों, मम्मी जी से विदा लेकर रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ चले |

मुख्य रेलवे स्टेशन से दूर, एक उपनगरीय छोटे रेलवे स्टेशन से हमें गाड़ी पकड़नी थी | यह एक पेसेंजर ट्रेन (आम यात्री गाड़ी) थी जो हर छोटे मोटे स्टेशन, गाँव इत्यादि पर रूकती जाती थी | अभी तक मेरा सिर्फ एक्सप्रेस और सुपर फ़ास्ट ट्रेन में आरक्षित यात्री के रूप में ही यात्रा करने का अनुभव रहा है | यह पहली बार था जब मुझे पैसेंजर ट्रेन में सफ़र का मौका मिला अपने मित्र बृजेश की बदौलत | उसका गाँव एक छोटे से रेलवे स्टेशन के पास है, जहाँ कोई एक्सप्रेस ट्रेन नहीं रूकती इसलिए पैसेंजर ट्रेन के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं बचा क्योंकि सड़क मार्ग से या बस से मेरी तबियत बिगड़ने लगती है और सफ़र लम्बा था | मैं नहीं चाहता था कि शादी के उत्सव में मेरी उपस्थिति व्यवधान बने और बृजेश और उसके परिवार का ध्यान मेरी सेवा सुशुश्रा करने में बर्बाद हो |

गाड़ी का समय दोपहर २:३० बजे का था और हम लोग लगभग सवा दो बजे के थोड़ा बाद स्टेशन पर पहुँचे थे | मगर टिकट काउंटर पर लगी लम्बी कतार देख कर मुझे अफ़सोस हुआ कि मेरी वजह से आज दुल्हे राजा की ट्रेन भी छूट जाएगी | बिना टिकट यात्रा करना मुझे स्वीकार्य नहीं होता, पर इस बारे में सोचना भी नहीं पड़ा | “आप यहाँ रुको, मैं अभी टिकट लेकर आता हूँ”, कह कर अपना एक बैग और मेरा सूटकेस जो बृजेश ही लेकर चल रहा था अभी तक, मुझे पकड़ाते हुए बृजेश बिजली कि फुर्ती से टिकट काउंटर पर लगी लम्बी कतार की ओर बढ़ चला | इतनी लम्बी कतार में समय तो लगना स्वाभाविक ही था मगर बृजेश तो कतार में लगा ही नहीं था | वो टिकट काउंटर के पास ही सबसे आगे खड़ा था | इतने में ट्रेन के स्टेशन में पहुँचने की उद्घोषणा हुई, और २ मिनट बाद ट्रेन प्लेटफार्म पर आती हुई दिखाई दी | ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर लगी ही थी कि बृजेश दो टिकट लेकर उपस्थित था, और बोला, “चलिए, जल्दी से किसी डब्बे में चढ़ जाते हैं | ट्रेन थोड़ी देर ही रुकती है यहाँ |” इतना कह कर वो मेरे हाथ से अपना बैग और मेरा सूटकेस लेने के लिए बढ़ा पर मैंने उसको सिर्फ उसका बैग ही पकड़ा दिया और हम दोनों लपक कर सामने खड़ी ट्रेन में एक कम भीड़भाड़ वाला डब्बा ढूंढने लगे | दोपहर का समय दूधियों की वापसी यात्रा का होता है और अधिकांश डिब्बों में दूधियों ने दोनों द्वारों पर कब्ज़ा कर के आम जनता के लिए रास्ता बंद कर देते हैं | इससे बहुत असुविधा होती है |चलते चलते हम इंजन के पास तक पहुँच गए और तभी इंजन की हॉर्न की आवाज आई | गाड़ी चलने को तैयार थी | यही डिब्बा था और हमें इसी में अब यात्रा करनी थी | वैसे भी इस डब्बे में दूधिये न के बराबर और यात्रीगण अधिक थे | हम दोनों फटाफट अपने सामान के साथ ऊपर चढ़ गए और इतने में गाडी स्टेशन से छूट गयी |

अब बारी थी अपने बैठने के लिए स्थान ढूंढने की | अपने डब्बे में आस पास नज़र दौड़ाने पर मुझे अपने सहयात्रियों के बातचीत के तौर तरीके, बोलचाल की भाषा, बैठने का सलीका और कपड़े-पहनावे को देख कर अंदाजा लगना मुश्किल नहीं था कि संभवतः सभी यात्री गाँववासी थे, कोई भी शहरी व्यक्ति नहीं लगा मुझे | दोपहर की गर्मी में अधिकांश लोग यात्रा नहीं करते इसलिए भीड़ बहुत अधिक नहीं थी | करीब ढाई-तीन घंटे कर सफ़र था | बृजेश फिर मेरे लिए एक देवदूत बनकर आगे बढ़ा और सामने वाली पहली सीट पर बैठे व्यक्तियों से अपने गाँव कि आंचलिक भाषा /लहजे में हम दोनों के बैठने के लिए स्थान देने को कहा | उसने मेरी ओर देखते हुए, मुझे गर्मी न लगे और आरामदायक सफ़र हो, इस लिए विशेष तौर पर खिड़की के साथ वाली सीट देने की प्रार्थना की | जनरल (सामान्य) श्रेणी के यात्री-कोच में गाड़ी चलते समय बाहर से आती हवा के झोंके ही थोड़ी बहुत राहत दे पाते हैं नहीं तो इतनी भीड़ में और लोगों की शरीर से आने वाली पसीने की महक से दम घुटा जाता है |

मेरी शहरी परिवेश की वेश-भूषा, (हालाँकि मैं एक सामान्य सी टी-शर्ट और जीन्स पहने हुए था पर देखने में उन सब से अलग पहचाना जा सकता था), और चुपचाप एक कोने में खड़े होने की अकड़ पूर्ण (कई लोग ऐसा मान सकते हैं जब आप उनके साथ आसानी से मिलते जुलते नहीं या खुद पहल करके उनके साथ एक नहीं होना चाहते या शायद … शहरी लोगों का अपना स्वाभाव ही उन्हें एक अलग “अकड़” वाले व्यक्तित्व की पहचान देता है जो कि पूर्वाग्रह से प्रेरित अधिक होती है ) शैली देख कर लोग मुझे घूर घूर कर देख अवश्य रहे थे पर कोई भी अपनी बर्थ (बैठने कि लम्बी सीट) पर बैठने को नहीं बोला | और किसी से उसकी सीट मांगना मुझे अनुचित प्रतीत हुआ | ऐसा नहीं कि जहाँ ३ लोग बैठे हों, वहां चार के बैठने का स्थान नहीं बन सकता मगर मुझे इस गर्मी में इतनी आस-पास सट कर बैठना नागवार लगा | अपने लिए भी, और दूसरे व्यक्ति को मेरी वजह से असुविधा हो, इसलिए भी मुझे स्वीकार्य नहीं था | मगर मुझे हैरानी हुई, जब “काका ! ताऊ !” जैसे आत्मीय संबोधन और आंचलिक भाषा के प्रयोग से बातों ही बातों में बृजेश ने हम दोनों के लिए दो सीट खाली करा ली | शायद, अपनी भाषा बोलने वाला व्यक्ति आत्मीयता की डोर से आपको बाँध लेता है और गाँव के परिवेश में जो सामाजिक ताना बाना है वो अभी ही जीवन के मूल्यों के प्रति, शहरी परिवेश से अधिक सजग है, मजबूत है | गाँव में अड़ोसी-पडोसी, अपने गाँव वाले को अपना भाई-बन्धु मानकर थोड़ा बहुत “व्यवहार” अभी भी निभाया जाता है, शहरी परिवेश की तरह नहीं जहाँ अपने अपार्टमेंट के बगल वाले अपार्टमेंट में कौन रहता है, इसका भी कोई लेना देना नहीं रखा जाता बल्कि इसको अनुचित हस्तक्षेप मान कर दूरी बनाये रखने की अपेक्षा की जाती है | उन ग्रामीण यात्रियों में से एक युवा, और उससे थोड़ा अधिक व्यस्क उसका कोई साथी, “काका” के कहने पर ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ कर पालथी मार कर बैठ गए और “काका” ने अपने स्थान से खिसक कर “खिड़की” वाली हवादार सीट और उसके बगल वाली एक सीट हम दोनों के बैठने के लिए खाली कर दी | शब्दों का जादू कितना प्रभावी होता है आज मुझे समझ आया | वे शब्द ही तो थे जिन्होंने महाभारत की पृष्ठभूमी तैयार की थी | और आज यहाँ, ये भी शब्दों का जादू का ही परिणाम था कि एक अनजान व्यक्ति को, अपनी सर्वश्रेष्ठ, हवादार सीट बिना किसी संकोच के दे दी और खुद ऊपर वाली बर्थ पर जा बैठे जहां हवा का झोंका तो दूर की बात है, ऊपर टंगे पंखे की हवा भी नहीं पहुँचती और गर्मी के मौसम में इससे बड़ी सजा किसी के लिए और क्या हो सकती थी?


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