बृजेश (भाग-८) : एक अजनबी से मुलाकात

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घर पहुँचने पर कोई विशेष स्वागत-सत्कार नहीं हुआ, न बृजेश का, न मेरा | बल्कि एक बार को मुझे लगा कि बृजेश शायद दूल्हा भी न हो क्योंकि उसके पहुँचने पर न किसी को कोई फर्क पड़ा न ही किसी ने उसकी आवभगत की | शायद मेरा यह सब सोचना भी अनुचित ही हो, पर मैं न सही, बृजेश तो इस समय विशेष था ही | या यह सब मुझे इसलिए अजीब लगा क्योंकि जब भी मैं दिल्ली से घर वापस आता था, तब जो विशेष आवभगत मेरे घर में मेरी होने लगती थी, मेरे माता-पिता, मेरे मित्र-मंडली सब की तरफ से मुझे तो बेइंतेहा प्यार और दुलार मिलता था, जो कि सामान्य दिनों से बहुत अधिक प्रगाढ़ होता था, इससे मुझे लगने लगा कि शायद हर घर में, हर व्यक्ति के साथ ऐसा ही होता होगा जो भी कुछ दिन घर से, परिवार से दूर रह कर घर लौटता है | कम से कम मुझे आशा थी कि ऐसा ही बृजेश के साथ होगा जब वो, होने वाला दूल्हा. लगभग एक हफ्ते बाद शादी के ठीक पूर्व अपने घर वापस पहुंचेगा | इस महत्वपूर्ण अवसर पर सभी को बृजेश की प्रतीक्षा होगी किन्तु यहाँ पहुँच के मुझे एहसास हुआ कि सब घरों में, सब के परिवार में ऐसा होना ज़रूरी नहीं था | सब अपने अपने काम में जैसे थे, वैसे ही व्यस्त रहे |

घर के आँगन में प्रवेश करने के बाद बृजेश मुझसे बोला, “आप एक मिनट यहाँ ठहरो!” और फिर सामने एक कमरे की ओर बढ़ चला | उसने अपने जूते बाहर उतारे और अन्दर जाकर एक महिला से कुछ बात चीत कर के फिर मेरे पास वापस लौट आया और बोला, “मैं माँ से चाय-नाश्ता बनाने को कह आया हूँ | आप चाहो तो थोड़ा मुँह-हाथ धो कर “फ्रेश” हो जाओ तब तक | अभी बत्ती (बिजली) नहीं है, और आने की उम्मीद भी नहीं है | अन्दर कमरे में अँधेरा और गर्मी बहुत लगेगी आपको इसलिए यहीं थोड़ी देर खुले में खाट बिछा देते हैं आपके लिए – अन्दर की गर्मी की अपेक्षा यहाँ ज्यादा आराम मिलेगा |”

बृजेश का घर गाँव शुरू होते ही ३-४ कच्चे मकान छोड़ कर बना हुआ एक मजबूत, पक्का ईंटों का बना हुआ विशाल मकान था | अगर बाकी आस पास के मकानों से तुलना करें तो आसानी से कोई भी बता सकता था कि गाँव में बृजेश और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति और “हैसियत” कुछ विशेष ही होगी | हलके नीले आसमानी रंग में रंगा हुआ, तीन मंजिला मकान अभी कुछ वर्ष पूर्व ही बना होगा | जब तक मैं घर को निहार रहा था, इतनी देर में मेरे लिए एक चारपाई पर दरी, फिर चद्दर बिछा कर मेरे बैठने का इंतजाम कर दिया गया | सामने लकड़ी के दो स्टूल रख कर उसमें जग भरकर लाल शरबत और दो गिलास, कुछ मिठाईयां जैसे बर्फी, गुलाब जामुन, नमक पारे, नमकीन और नमकीन मठरी, इत्यादि एक छोटा लड़का रख कर चला गया |

“मैंने आप का सूटकेस और बैग सामने अपने कमरे में रख दिया है, आपको जब किसी भी चीज़ की जरुरत हो, बेझिझक मुझे बताना |”, सामने से मेरी ओर आते हुए बृजेश मुझे देख कर बोला | “अरे ! अम्मा जी ! जरा मुंह हाथ धुलवाये के पानी भिजवाय देत”, बृजेश थोड़ी ऊँची आवाज़ में उसी कमरे की तरफ मुंह कर के बोला जिसमें वो पहले उन महिला से बात करने गया था | कुछ पलों में अपना चेहरा घूँघट में आधा ढके एक महिला हाथ में पानी से भरा जग लिए हमारे ओर लिए आयीं और पूछने लगीं, “काहे ? लम्बरदार नहीं आये तोहार संग?” अब बृजेश ने मेरी ओर देखा और बोला ये हमारी अम्मा जी (माता) हैं, और फिर उनको बताया, “नाही ! उनका कुछ देर लागी | अभे स्टेशन पर मिले रहे |” बृजेश ने शायद मेरी बात समझ के इस बार मुझे सचेत किया था ताकि मैं पुनः वही अपराध-बोध से ग्रसित होकर कुंठित न होने लगूं | मैंने उठ कर उनके चरण स्पर्श किये और साथ में बृजेश ने आकर उनके हाथ से जग ले लिया | उनके जाने के बाद हम दोनों ने एक एक कर के उस पानी से अपना हाथ मुंह धोया और बातों बातों में पता चला कि बृजेश के पिता ही गाँव के “लम्बरदार” हैं | पुराने अंग्रेजो के समय के जमींदारों की तरह ही लम्बरदार एक रसूख वाला पदनाम है जो गाँव में प्रचलित है |

शर्बत बहुत मीठा था, मुझसे एक घूँट पीने के बाद और पिया नहीं गया | मैं मीठे का शौक़ीन ज़रूर हूँ पर मुझे हल्का मीठा ही पसंद आता है | इतना तेज मीठा मुझसे खाया नहीं जाता जिसे खा के घंटों मीठा खाने का अफ़सोस हो | बृजेश के अनुरोध पर मुझे बर्फी का एक टुकड़ा लेना पड़ा पर बर्फी भी मुझे ऐसे लग रही थी जैसे दस गुना ज्यादा शक्कर डाली गयी हो | बृजेश के बार बार अनुरोध करने पर भी मुझे दोबारा कोई भी मिठाई “taste” करने का दु:साहस नहीं हो सका | इतनी गर्मी में तली हुई मठ्ठी या नमक पारे भी मैं नहीं ले सकता था | मुझे बार बार बृजेश के अनुरोध करने पर आत्मग्लानि होने लगी क्योंकि मेरे कुछ भी लेने से मना करने पर उसको मेरे “नखरे” और मेरी खातिरदारी में उसको अपनी तरफ से होने वाली कमी महसूस होने की प्रबल सम्भावना थी | बृजेश का मुंह उतर गया था | मैंने उसे समझाते हुए कहा कि मैं हल्का फुल्का. घर का सादा खाना खाने का आदी हूँ, तला-फला खा के पेट ख़राब हो जायेगा | आप मेरे लिए एक कप चाय, कम मीठे वाली बनवा दो और हो सके तो पारले जी या कोई भी ग्लूकोस के बिना अंडे वाले बिस्कुट जो भी उपलब्ध हों, वो चलेगा | मेरी इस “डिमांड” से बृजेश को शायद कुछ संतोष हुआ क्योकि उसका फीका होता हुआ चेहरा, एक बार पुनः मुस्कान से जगमगा गया था हालांकि अभी भी उसके चेहरे पर असंतोष के भाव भी स्पष्ट देखे जा सकते थे |

चाय क्या थी, गाँव के बिना पानी के खालिस दूध में चायपत्ती डाल के, इलायची, अदरक, दालचीनी आदि डालकर बनायीं गयी चाय किसी अमृत से कम न थी | सफ़र की थकान और सर दर्द एक दो घूंट पीते ही हलके होने लगे | हम दोनों ने चाय पी तब तक सांझ होने लगी थी | “अब मुझे आज के पूजन और कार्यक्रम के लिए तैयार होना है, आप भी चाहो तो नहा लो, हैंडपंप के ठन्डे पानी से ताजगी आ जाएगी |”, बृजेश ने सुझाया | मगर खुले में सबके सामने कपडे उतार के नहाना अपने आप में मेरी सिरदर्द बढ़ाने वाला कारण था | मेरे एक मित्र (मेरे दिल्ली वाले रूममेट) के अलावा आज तक मेरे माता पिता ने भी शायद ही कभी मुझे बिना बनियान के या मात्र अंडरवियर में देखा होगा | पूरे गाँव के लोगों के सामने, या बृजेश के सामने भी मुझे अपने कपड़े उतारने में शर्म और संकोच दोनों ही रोक रहे थे | मैं इस संकट की परिस्थिति से ही बचने के लिए गाँव नहीं आना चाहता था | पर मुझे उपाय सूझ गया | मैंने बृजेश को मना करते हुए बोला, “नहीं ! तुम नहा लो | तुम्हें शुद्ध हो कर पूजन में बैठना है | मैं तो मुंह हाथ धोते समय ही आधा नहा चुका हूँ | देखो अभी भी आधी टी-शर्ट गीली है | इसी से गर्मी भी नहीं सता रही | मुझे थोड़ी सिरदर्द भी हो रही है, इसलिए मैं कुछ देर लेट कर आराम कर लेता हूँ, शायद एक झपकी आ जाय तो कार्यक्रम शुरू होने से पहले मैं चुस्त-दुरुस्त हो जाऊंगा |”

बृजेश का पूरा ध्यान मेरी सहूलियत और आराम की तरफ था | उसे मेरी बात जंची | “तो फिर मैं ऐसा करता हूँ, सांझ होने को है, मैं आपके लिए ऊपर छत पर पानी छिड़का के, आपके लेटने के लिए गद्दे डलवा देता हूँ | ऊपर खुले में हवा भी अच्छी लगेगी और आपको यहाँ नीचे होने वाले शोर और भीड़-भाड़ से दिक्कत भी नहीं होगी | थोड़ी देर आराम करके जब आपको बेहतर लगे आप नीचे आ जाना |”, बृजेश ने सुझाया | मुझे इसमें क्या आपत्ति होने वाली थी? बृजेश ने एक लड़के को बुलाया और सब इंतजाम करने को कह कर खुद तैयार होने चला गया | मैं उसे थोड़ी थोड़ी देर अपने कमरे में आते जाते देखता रहा | शायद वो अपने नहाने की तैयारी कर रहा था क्योंकि अंतिम बार जब मैंने उसे देखा तो वो बनियान पहने, और कमर में अंगोछा लपेटे हुए था | करीब आधे घंटे वहीँ इंतज़ार करने के बाद वो लड़का मुझे लेने आया और मैं उसके पीछे पीछे छत पर चला गया |

मेरे छत पर पहुँचने से पहले ही उस लड़के ने अच्छी तरह पानी छिड़क कर छत को ठंडा कर दिया था | मुझे पहुंचा कर वो खुद अपना काम करने के लिए वापस चला गया | शादी वाले घर में मेहमानों को छोड़ कर कौन वेला हो सकता है? छत बिलकुल सपाट मैदान थी, वहां कोई कमरा नहीं था, न ही कोई दीवार थी, और न ही आस पास ऊँचे ऊँचे मकान, इस वजह से हवा के प्रवाह में कोई ख़ास अवरोध नहीं था | जहाँ से हम छत पर चढ़े, उसके बायीं तरफ की दीवार, अर्थात मकान के पीछे की तरफ दो घने पेड़ मकान को समीप से घेरे हुए ऐसे लग रहे थे जैसे वो मकान की पहरेदारी कर रहे हैं | मकान के पिछली दीवार एक तरफ नीम, दूसरी तरफ बरगद के बड़े से पेड़ से ढकी हुई थी | मगर शुक्र है कि हवा का रुख ऐसा नहीं था कि वे पेड़ उसके मार्ग में बाधा बनते और मुझ तक आने वाली हवा को रोकते | उस दीवार के साथ वाली तीसरी तरफ, जो शायद मकान और इस रिहायशी इलाके का अंतिम छोर था, वहां पीपल का बड़ा सा पेड़ मकान से थोड़ी ही दूरी पर था, और उसके पीछे बाकी पेड़ों की झुण्ड था जो एक दूसरे से थोड़ी थोड़ी दूरी पर थे | इस तरफ एक आध टूटी फूटी झोंपड़ी के अलावा कोई और घर नज़र नहीं आ रहे थे जिससे साफ़ था कि उधर रिहायशी इलाका नहीं है, हाँ, कुछ एक जानवर वहां ज़रूर चर रहे थे | चौथी दीवार, जो मकान के मुख की ओर थी, उधर ही मेरी लेटने के लिए रुई के मोटे मोटे दो गद्दे और उसके ऊपर एक साफ़ सी चद्दर बिछायी गयी थी | साथ में एक २ लीटर की कोल्डड्रिंक की बोतल में पीने का पानी भर कर रखा गया था | छत पर ऊपर चढ़ने के लिए भी लकड़ी की बनी हुई सीढ़ी थी, पक्की सीढियां नहीं थीं, इसलिए मेरे लिए छत पर आना जाना थोड़ा असुविधाजनक था | मैं लकड़ी की सीढ़ियों पर, सीमेंट की पक्की सीढ़ियों की तरह सुरक्षित महसूस नहीं करता | एक छोटी सी भूल भी पैर फिसलने पर खतरनाक चोट का कारण बन सकती थी |

मकान के हर मंजिल की ऊँचाई, शहरों की अपेक्षा अधिक थी अतः छत भी काफी ऊँचाई पर थी | छत से गाँव और आस पास का नजारा स्पष्ट नज़र आ रहा था | वास्तव में पूरे गाँव में बृजेश के घर जैसा विशाल, ऊँचा और पक्का मकान दूसरा नहीं था | ज्यादातर घर कच्चे मिटटी के बने हुए थे और कुछ एक ईंटों के बने हुए थे भी किन्तु उन पर भी छत खपरैल की या खरपतवार की बनी हुई ही थी और उनमें भी बहुत ही कम ऐसे थे जिनकी दीवारों पर प्लास्टर हो रखा था | कुछ एक मकान थे जिन पर रंग के नाम पर चूने की पुताई की गयी थी | बृजेश का घर, गाँव की रिहायशी सीमा की शुरुआत में ही था क्योंकि पीछे की तरफ देखने पर बाकी घरों का सिलसिला शुरू होता साफ़ दिखता था | हाँ, उन घरों की अपेक्षा बृजेश का घर खुला-डुला और काफी विस्तीर्ण था, जबकि बाकी मकान अधिकतर सटे-सटे और संकीर्ण से क्षेत्र में व्यवस्थित किये हुए लगते थे | शायद इसी वजह से, यह मकान इस जगह पर बनवाया गया होगा क्योंकि एक तो यह शहर जाने के मार्ग, रेलवे स्टेशन और खेत-खलिहान में जाने के लिए नजदीक पड़ता है, और दूसरा इतनी विस्तीर्ण क्षेत्रफल वाली खुली जगह बाकी गाँव में मुझे एक नज़र डालने पर नहीं दिखी |

छत पर जाते समय, तीसरी मजिल में मुझे सभी कमरों में सन्नाटा छाया हुआ दिखा था और हर कमरे में ताला लटक रहा था | शायद तीसरी मंजिल में किसी का निवास नहीं था | इसलिए छत पर मुझे किसी का हस्तक्षेप होने की सम्भावना नही लगी और पूर्णतः एकांत में मैं आराम से पैर फैला के लेट सकता था | बस, एक दिक्कत थी | जब से मैं अपने घर से चला था, दोपहर से लेकर अभी तक मैंने लघुशंका निपटाई नहीं थी | यात्रा के दौरान तो पसीना ही इतना बह चुका था कि पेशाब आया ही नहीं | मगर घर पहुँचने के बाद दो गिलास पानी और ऊपर से करीब आधा गिलास चाय पीकर अब मुझे जोर का पेशाब लग रहा था | दिक्कत ये थी कि मुझे पता नहीं था कि टॉयलेट कहाँ बनी थी …और घर में बनी भी थी या नहीं इसका भी कोई अंदाजा नही था | तीसरी मंजिल में मैं पहले ही सभी कमरों में ताला लटका हुआ देख चुका था | सूर्यास्त लगभग होने को था | ऐसे में तीन मंजिल नीचे उतर के जाना और फिर अँधेरा होते होते वापस इन लकड़ी की सीढियों से चढ़ना भी मेरे लिए समस्या का कारण था | एकांत का फायदा उठाते हुए, मैंने लघुशंका का निराकरण यहीं ऊपर छत पर ही करने का निर्णय लिया | तीसरी तरफ की दीवार जिधर पीपल का पेड़ और अन्य पेड़ों का झुण्ड था, और रिहायश या लोग नहीं थे, उसी तरफ की छत के कोने में मैंने अपने आपको हल्का किया और वापस अपने बिस्तर पर आकर लेट गया |

सांझ समय के ठंडी हवा के झोंकों के बीच मुझे सुस्ती आने लगी | बृजेश का सुझाव बिलकुल सही था क्योंकि नीचे अँधेरा होने के साथ साथ जलाई गयी मोमबत्ती या लालटेन या संभवतः दिए की मद्धम सी रौशनी में बहुत सी महिलाओं का गाँव की भाषा में गाया जाने वाला गीत, और एक रस में बजती हुए ढोलक की थाप मुझे नहीं भाने वाली थी | यहाँ तक की तीसरी मंजिल की छत पर भी मुझे वो “शोर” शांत होने का इंतज़ार था | हालांकि छत पर हवा अच्छी बह रही थी, और नीचे मकान के पीछे की तरफ खुले आकाश के नीचे खेलते बच्चों का शोर भी, नीचे बजती ढोलक और महिलाओं के संगीत के मद्धम स्वर के साथ छत तक आ रहा था पर फिर भी सहन करने लायक था |

मैं न तो कुछ समझ पा रहा था कि क्या गाया जा रहा है, न ही मुझे यह संगीत कर्णप्रिय लग रहा था | पंजाबी पॉप, बॉलीवुड और हॉलीवुड के संगीत के आगे, गाँव की अनबूझी बोली में, चिल्ला-चिल्ला के गाये जाने वाली महिला संगीत की मैं क्या तारीफ करूँ? मैं बस अपने बिस्तर में लेट कर आँख बंद करके पहले तो इस शोर को समझने का और फिर बिना लय-ताल के एक रस में बजती ढोलक के बंद होने का इंतज़ार करने लगा क्योंकि काफी देर तक प्रयत्न करने पर भी मैं उनकी भाषा और शब्द पकड़ने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था |

अँधेरा होने लगा था | बिना बिजली की रौशनी के आसमान भी कितना साफ़ दिखता है | आसमान में इतने सारे तारे एक साथ, बिना टेलिस्कोप के भी नज़र आ सकते हैं, यह मुझे आश्चर्यजनक और आकर्षक लग रहा था | साफ़ आसमान और खुली हवा के नज़ारे शहरों में किस्मत वालों को ही शायद नसीब होते होंगे | ये अँधेरा भी अच्छा लग रहा था | अँधेरा होने के साथ साथ बाहर खेल रहे बच्चों का शोर भी थम गया था | सिर्फ नीचे से महिलाओं के संगीत की आवाज़ आ रही थी | मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं थोड़ी देर एक झपकी लेने के इरादे से | तभी एक मंद मंद सी महक ने मुझे पुनः सचेत किया | महक आनंददायक थी | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बहुत से फूलों की ताज़ा खुशबु बिखर गयी हो और आस पास चन्दन के पेड़ों को स्पर्श करके हवा चन्दन की शीतलता और खुशबु अपने साथ ले आई हो | मुझे लगा शायद नीचे पूजा पाठ के लिए कोई धूप या अगरबती की वजह से ये खुशबु आ रही होगी, मगर भूतल पर लगभग डेढ़ दो घंटे से चल रहे कार्यक्रम का असर अचानक से अब कैसे शुरू हुआ? पहले क्यों ऐसी खुशबु नहीं आई? और फिर तीन मंजिल पार कर के छत तक अगरबत्ती की फूलों की महक, यदि ऐसा संभव होता भी, तो भी इतनी स्पष्ट, इतनी तीव्र नहीं हो सकती थी | इस अप्रतिम मादक महक के वशीभूत होकर मेरे अंग शिथिल होने लगे और मैं आराम की अवस्था में अर्द्ध-चेतन सा हो गया | मैं जाग रहा हूँ, ऐसा आभास हो रहा था मगर मुझे आँखें खोलने का मन नही हुआ | श्वास की गति भी शांत और धीमी होने लगी जैसा सोते समय होता है | तभी सीढ़ियों की तरफ से पायल की खनक ने मुझे सचेत किया | मैंने आँख खोल कर देखा तो सीढ़ियों के पास एक नवयौवना धीमी गति से टहल रही थी | अँधेरे में चेहरा तो देख पाना मुश्किल था मगर उसके श्वेत उज्जवल कपड़ों ने पीठ पर लहराते हुए काले लम्बे बाल, जो उसकी कमर को छू रहे थे, स्पष्ट नज़र आ रहे थे | उसका मुंह मुझसे विपरीत बाहर की तरफ था और पीठ मेरी तरफ और वो छत से बाहर नीचे गाँव के बाकी घरों की तरफ देख रही थी | पहनावे से, रूप रंग से किसी संभ्रांत परिवार की महिला लग रही थी | श्रृंगार के नाम पर ज्यादा कुछ नहीं था पर हाथों में कुछ कंगन और चूड़ियाँ थीं, गले में संभवतः कोई हार, और कानों में कपड़ों से मेल खाते मोटी मोतियों से युक्त कर्णफूल | उसकी चलने कि गति इतनी सधी हुई थी मानो नीचे से आती ढोलक की ताल के साथ उसकी पायल अपना संगीत मिलाकर एक मधुर राग उत्पन्न कर रही थी | अभी तक बेसुरी सी लगने वाली ढोलक की थाप, अब उसकी पायल की खन-खन के साथ एक कर्णप्रिय संगीत होने का एहसास दिलाने लगी |

मैं अपने गद्दे के बिस्तर पर ही उठ के बैठ गया | किसी महिला के आस पास होने पर ऐसे बेसुधी में लेटना वो भी एक अजनबी व्यक्ति का, बृजेश के परिवार और गाँव वालों को अभद्रता का एहसास करा सकता था | बैठ कर मैंने अपने बाल और अपने कपड़े ठीक करने शुरू किये कि तभी वो महिला पीछे पलटी, उसने मेरी तरफ एक क्षण को देखा और फिर तेजी से वापस सीढ़ियों की तरफ चली गयी | मैं वहीँ बैठा बैठा उसके सीढ़ियों से उतरने के साथ धीमी होती पायल की मधुर आवाज़ सुनता रहा | कुछ पलों में फिर वही बेसुरी ढोलक की थाप मात्र रह गयी और वही चिल्लाती हुई महिलाओं का कर्णभेदी संगीत ! उसके जाने के साथ ही वो मादकता फ़ैलाने वाली, चन्दन मिश्रित फूलों की खुशबु भी धीमे धीमे गायब हो गयी | शायद वो उसी महिला के इत्र की खुशबू रही होगी | संशय था कि क्या कोई इत्र भी इतना प्रभावी, इतना मादक हो सकता है कि खुले वातावरण में इतनी दूर तक उसका असर महसूस किया जा सके या यह मेरी थकावट का और आधी अधूरी नींद का असर था? इन्ही सब गहन विचारों में अपने को और उस घटना के प्रभाव को समझने के असफल प्रयास में थक कर, मैं पुनः निद्रा-देवी के आगोश में शांत होकर अपनी सुध-बुध भुला बैठा |


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