बृजेश (भाग-१२) : शहरी गँवार


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खेत से वापस घर तक आये, मगर घर गए नहीं | अपितु बृजेश भाईसाहब घर को पार कर के घर की पीछे की तरफ चल पड़े और मैं उसके पीछे पीछे | घर के ठीक पीछे, घर की पिछली दीवार से थोड़ी दूर एक हैण्डपंप था | हम दोनों ने वहीं हाथ धोये | हाथ क्या धोने थे, बृजेश को देख कर तो लगा कि लगभग स्नान भी कर लिया उसने | पहले हाथ, फिर बाजू, चेहरा, गला, पैर, और घुटने के थोड़े नीचे तक पिंडलियाँ – सब ऐसे रगड़ रगड़ के धोये जैसे दिल्ली-गुडगाँव वाले बारिश के बाद सड़क पर भरे नाली सीवर के पानी में भीगने के बाद घर आकर स्नान कर के शुद्ध होते हैं | खैर, वहाँ से वापस आकर हम घर पर आये तो बृजेश ने टूथपेस्ट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, आप मंजन कर लो फटाफट, फिर हम लोग स्नान कर आते हैं, नहीं तो थोड़ी देर में भीड़ लग जाएगी |

“हम” स्नान कर आते हैं – सुन कर मेरे चेहरे का रंग बदल गया | “हम” से क्या मतलब है? इस सदमें से थोड़ा संभल पाता कि उससे पहले ही वाक्य के अगले हिस्से ने कुठाराघात कर के मेरे होशो-हवास उड़ा दिए | “क्या मतलब है ‘हम’ से? यहाँ बाथरूम भी नहीं है क्या? खुले में नहाना पड़ेगा क्या?”, बदहवासी में बिना सोचे समझे कि मेरे मेजबान को बुरा लग सकता है, मैं अपने ही दुःख में खोया, भावातिरेक में उचित-अनुचित का विचार करना भी भूल गया था | “नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूँ ! मुझे नहीं नहाना |”, मैंने बोल तो दिया मगर मुझे भी पता था कि मैं इस स्थिति में नहीं था कि स्नान किये बिना रह सकूँ | एक तो जनरल कोच में – भीड़भाड़ भरे कोच में पसीने से नहाये हुए बदन और कल के पहने हुए कपड़े दोनों ही आतंक मचा रहे थे | अगल बगल वाले क्या सोच रहे होंगे पता नहीं पर मैं खुद भी अपने को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था | कल यात्रा की थकावट, और और फिर संध्या में अँधेरे और नींद के चक्कर में तो एकबारगी मैं टाल गया था पर अब और ज्यादा देर सहन नहीं कर पा रहा था | ऐसे भी मुझे गर्मी कुछ अधिक ही परेशान करती है और पसीना भी अधिक ही आता है | ऐसे में इस गर्मी के मौसम में ठन्डे पानी में स्नान मेरे लिए उतना ही जरुरी हो रहा था जितना मछली के लिए पानी |

मेरे नखरे एक बच्चे जैसे थे | उम्र या शरीर की लम्बाई बढ़ने से ही कोई बड़ा नहीं होता – यह आज फिर प्रत्यक्ष हो गया था | माँ-बाप का इकलौता दुलारा बेटा, नाज़-नखरों में पूरी राजसी ठाटबाट में, लगभग पूरी स्वंत्रता से एकाधिकार के साथ अपने बेडरूम, बाथरूम पर पूरी बादशाहत से दशकों तक राज्य किया हो जिसने, जिसको उसके माता-पिता ने भी कभी अर्द्ध-नग्न भी न देखा हो बाकी किसी अन्य मित्र आदि को तो भूल ही जाइए, उसको आप सड़क पर खुलेआम सबके सामने नहाने को कह के तो देखो – आपको स्थिति का अंदाजा हो जाएगा कि स्थिति कितनी विस्फोटक हो सकती है | मगर बृजेश मेरी तरह एक छोटा बच्चा नहीं था | अपितु, बृजेश एक युवा शरीर में भी परिपक्वता की जीती जागती मिसाल था जिसको मेरे जैसे बच्चों को सँभालने का दायित्व भी नया नहीं रहा होगा, या शायद उसको इस स्थिति का पूर्वानुमान था और वो शायद इसके लिए पहले से ही तैयार था |

उग्रता को शीतलता ही शांत कर सकती है | बृजेश की मधुर मुस्कान और शीतल शब्दों ने तुरंत मेरे उबलते हुए उफान को शांत कर दिया | कारण था तो – निवारण ही समाधान दे सकता था | और निवारण दो ही थे – मेरे लिए घर पर बाल्टी भर कर पानी लाया जाता पर उससे दिक्कत थी कि मुझे सिर्फ एक ही बाल्टी पानी या ज्यादा से ज्यादा दो में गुज़ारा करना पड़ता और फिर भी घर में उपस्थित अतिथियों, हलवाइयों आदि की भीड़ बाहर मौजूद लोगों से अधिक थी | घर में भी कोई अलग से कमरा नहीं था नहाने के लिए – बाहर खुले में ही नहाना पड़ता जहां सब सब्जी, बर्तन धुलने और हलवाई अपने बर्तन धोने लगे हुए थे | बार बार पानी की बाल्टी मंगाना भी अशोभनीय था और फव्वारे के नीचे खुले पानी में नहाने के आदि मुझ जैसे युगपुरुष के लिए लिए एक या दो बाल्टी पानी निश्चय ही कम पड़ती | दूसरा उपाय था कि बाहर अभी जब सुबह भीड़ कम है तो फटाफट स्नान कर के वापस आ जाया जाय | बृजेश के शालीन स्वाभाव और मेरे नखरे को सह कर भी “मैं आप के लिए घर में बाल्टी भर के ले आता हूँ|”, ऐसा सुझाव मुझे अपनी गलती पर शर्मिंदगी का एहसास कराने के लिए काफी था |

नहाने के लिए जब हैंडपंप पर पहुंचे, तो दो एक लोग थे जो हैण्डपंप पर अपना ‘अर्द्ध-स्नान’ निपटा रहे रहे थे, जैसे बृजेश ने कुछ देर पहले किया था | चोरी-चोरी नज़रों से मैं इधर उधर की परिस्थिति का जायजा लेने लगा कि कितने लोग आसपास हो सकते हैं जो मुझे नहाते हुए देख सकते हैं | ज्यादा नहीं थे, सिर्फ कुछ एक छोटे बच्चे अपनी पानी की बोतल हाथ में लेकर इधर को आ रहे थे, बाकी सब लगभग सुनसान ही था | दिल में धक्-धक् के साथ थोड़ा सुकून भी हुआ | बृजेश ने कहा, “अब आप पहले नहा लो | लाओ अपने कपड़े मुझे पकड़ा दो और आप नहाना शुरू करो” | बृजेश ने शब्दों शब्दों में ही मुझे पुनः सचेत कर दिया था कि देर करना मेरे हित में नहीं था | मैं चाहता था कि ये बच्चे भी अपनी अपनी बोतल भर के चले जाएँ तो मैं लगभग एकांत में फटाफट दो मग्गे पानी डालकर स्नान प्रक्रिया को किसी के आने से पहले ही पूरा कर लेता, इसलिए मैंने कहा, “पहले इन बच्चों को पानी भर लेने दो |” शायद गाँव में एकाधिकार नहीं होता | सिर्फ मैं अकेला हैंडपंप प्रयोग करूँ ऐसा नहीं होता | लेकिन बृजेश और उसके परिवार के प्रतिष्ठा और मान सम्मान इतना था कि जब मैं हैंडपंप के आधार की तरफ बढ़ा तो वहाँ उपस्थित लोगों ने मेरे लिए “आ जाओ ! आ जाओ !!” कह कर मेरे लिए स्थान खाली कर दिया और नीचे उतर कर थोड़ी दूर पर खड़े हो गए | हैंडपंप के नीचे एक पक्के प्लास्टर कराये हुए आधार को पानी निकासी के लिए बनाया गया होगा क्योंकि आस पास कच्ची मिटटी ही थी जहाँ इस पक्के आधार के होने के बावजूद पानी फैलने से कीचड़ जैसा फिसलन भरा स्थान हो गया था | इस गीले कीचड वाले स्थान पर कुछ कच्ची ईंटों को कीचड में धंसा कर एक तरफ से आने जाने का मार्ग बनाया गया था | हैंडपंप और इसका आधार बाकी जमीन से मामूली सी ऊँचाई पर था इसलिए हैंडपंप तक पहुँचने और उतरने के लिए थोड़े सावधानी पूर्वक पेर जमा कर आना जाना ज़रूरी था |

वो दो पुरुष जो अर्द्ध-स्नान कर चुके थे, वो अब अपने दांत साफ़ करने के लिए दातुन करने लगे और वो भी वहीँ खड़े हो गए बृजेश से थोड़ी दूर | बृजेश ने बच्चों से कहा, “लल्ला ! पानी भर लो ” और खुद हैंडपंप चला कर उनकी बोतलें भरवा दीं | शायद वो हैंडपंप किसी और के हवाले नहीं करना चाहता था ताकि अब हम लोग अपनी बारी लगा सकें | अपने साफ़ कपड़े मैंने बृजेश को पकड़ा दिए | दोनों बालक अपनी अपनी बोतल भर कर वहीँ रुक कर ऐसे मुझे हैंडपंप के आधार-क्षेत्र में प्रवेश करते हुए देखने लगे जैसे कोई entertainment show शुरू हो रहा हो | मुझे समझ नहीं आया कि क्यों उनको मेरे को हैंडपंप पर जाते हुए देखने का विचार आया | मेरे सिर पर कोई दो सींग अलग से नहीं थे | मैं भी उनके जैसा इंसान ही तो था | मगर शायद मेरे हाव-भाव या शायद बृजेश के यहाँ मेरे साथ होने की वजह से मैं उन सबके कौतुहल का विषय बन गया था | मैंने धीरे-धीरे, समय व्यतीत करने की कोशिश की ताकि दोनों बच्चे चले जाएँ पर वो तो वहीँ बुत बनकर मुझे ही देखने को रुक गए थे | मैं जीन्स पहन के ही नहाने के लिए जैसे ही बैठा, बृजेश बोला आप कपड़े तो उतार लो | इस पर दोनों लड़कों की हँसी छूट गयी और मुझे इससे और अधिक शर्मिंदगी महसूस हुई | “नहीं, मैं ऐसे ही नहा लूँगा !”, मैंने बोला | बृजेश ने अपने कपड़ों में से एक बिलकुल नया अंगोछा मेरी ओर बढाते हुए कहा, “आप यह लपेट के नहा लो |” बृजेश की बात से सहमति प्रकट करते हुए वो दोनों दातुन करते हुए महानुभाव भी अपने अपने विचार प्रकट करने लगे, “हाँ ! हाँ !!… आराम से नहाओ बाबु जी | शर्माते काहे हो | ठन्डे पानी से जी भर कर नहाओ | कौनो जल्दी नाही है | कपड़े काहे भिगोते हो | ख़राब हो जायेगे और बदबू और आने लगेगी |”

प्रजातंत्र है | जनमानस और बहुमत का प्रभाव मैंने भी महसूस किया | सबकी एक जैसी राय में रंगना ज्यादा आसान लगा, बजाय एक अलग सा नमूना बन कर पेश आने के | मैंने अंगोछा लिया, अपनी कमर पर लपेट कर जीन्स उतार कर नीच जमीन पर रखने लगा तो बृजेश ने हाथ बढ़ाकर जीन्स ले ली | बच्चों की “ही ही !” सुनकर अब मुझे टी-शर्ट उतारनी ही पड़ी पर फिर भी बनियान उतार कर पूरी छाती दिखाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई | मुझे तो टी-शर्ट उतार कर सिर्फ बनियान के जरिये भी अपनी बाहें, कांख, और कंधे आदि प्रकाशित करने में भी असहज महसूस हो रहा था | फिर बनियान से भी तो स्तन, पेट, नाभि, आदि के बनाव, उभार आदि स्पष्ट दिखते हैं, और सफ़ेद बनियान में से तो और भी आसानी से से “मैं ऐसे ही बनियान के साथ नहा लूँगा |”, मैंने बृजेश की ओर देख कर अपना फरमान सुना दिया | इस पर बृजेश ने सहमति में सिर हिला दिया और हैंडपंप चलाने लगा | शायद बृजेश भी अब मुझे और मेरी शर्मीलेपन को समझने लगा था | इतनी बातचीत सुन कर शायद आस पास के लोगों को अपने अपने घरों में बैठे बैठे बाहर एक विनोद प्रमोद का घटनाक्रम घटित होता हुआ प्रतीत हुआ होगा, या शायद बच्चों की हँसी की आवाज़ से उनको कौतुहल और अधिक हो आया होगा | अभी तक तो दो एक वयस्क और दो तीन बच्चे थे, पर धीरे धीरे लोगों का मजमा लगने लगा था हैंडपंप के आस पास और सब मुझे ही देख रहे थे |

बृजेश कपड़ों को पास के एक पेड़ की डाली पर लटका कर दोनों हाथों से तीव्र गति के साथ हैंडपंप चला रहा था जिससे कि पानी की स्पीड भी अच्छी आ रही थी | मैंने मुंह गीला कर के, ठन्डे पानी का स्वाद चखा | कुछ ज्यादा ही ठंडा लगा | मगर मुझे फिर भी पानी की ठंडक से ज्यादा दुष्कर मेरे चारोंओर जमा लोगों की भीड़ और उनकी घूरती नज़रें और होठों पर आती हुई हँसी लग रही थी | इस घटना के बाद से सफ़ेद सैनडोज़ बनियान मैंने पहननी बंद कर दी और रंगीन बनियान पहननी शुरू कर दी | सफ़ेद अंतर्वस्त्र भीगने पर इस कदर पारदर्शी हो जाते हैं यह इस घटना से पता लगा | यह तो अच्छा था कि नीचे मैंने लाल रंग का अंगोछा लपेट रखा था नहीं तो सफ़ेद अंडरवियर भीगने के बाद रोम-छिद्रों को भी छुपाने में नाकाम हो जाता है; फिर इतने उभार के साथ जननांगों या पिछवाड़े की चिपकी हुई त्वचा के साथ अंडरवियर पहना या न पहना दोनों बारबार थे | वो भी इन गाँव वालों की तरह देसी अंडरवियर या बॉक्सर नहीं, वी-आकृति में स्किन-टाइट फिटिंग के साथ ब्रीफ अंडरवियर |

“शहरी भैया कितने लजाते हैं |”, भीड़ में से निकले शब्द में कानों में पड़े तो मैं सकपका के रह गया | ऐसा लगा जैसे किसी ने दुखती रग पर हाथ रखा ही नहीं, मसल दिया हो | मैंने मुंह में साबुन लगा रखा था, आँखें बंद थीं तो पता नहीं चला कौन बोला | शायद उन बच्चों में से किसी की अवाज होगी या किसी महिला की | “भैया कितने गोरे हैं |”, दूसरी आवाज़ ठीक मेरे पीछे से आई | “लाओ, हम नहलाई देत हैं | रगड़ के पीठ भी साफ़ कराई देब |”, जैसे ही यह शब्द मेरे कानों में पड़े और कुछ क्षण बाद जब तक मुझे उनका अर्थ समझ आया (ग्रामीण भाषा से मेरा पहला शुरूआती तजुर्बा था सो समझने में थोड़ी देर लगती थी ), मैं हडबडा कर जहां बैठ कर नहा रहा था, वहीं खड़ा हो गया और आँखें खोल कर पीछे हटने की कोशिश करने लगा, “नहीं, नहीं ! … मुझे कोई हेल्प नहीं चाहिए | मैं खुद ही नहा लूँगा”, मैंने कहा पर मेरा उच्चारण अधिक स्पष्ट नही था क्योंकि जो पानी मैंने अभी अभी अपने सिर पर उड़ेला था वो धार के साथ साबुन मिश्रित जल मेरे मुंह में घुस गया था और आँखों में भी | आँखों में साबुन मिश्रित पानी घुसने से जलन होने लगी और आँखें खोलना मुश्किल हो गया | और बदहवासी में जो मैंने पीछे की तरफ कदम खींचे थे, उससे मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं गिरने लगा कि तभी किसी ने दोनों हाथों से मुझे थाम लिया | हाथों की पकड़ और हाथ दोनों मजबूत थे | “अरे ! अरे ! संभल कर | घबराओ मत | कोई नहीं आएगा |”, बृजेश की आवाज कानो में पड़ी | बृजेश ने मुझे अपनी बाहों में ऐसे मजबूती से पकड़ रखा था कि गिरते समय मैंने लगभग सारा भार उसके ऊपर ही डाल दिया था | मैं उसकी एक बाजू पर पीठ के बल लेटा हुआ सा था और वो बांह के सहारा देकर मुझे दोनों हाथो से थामे हुआ था | उसकी एक हथेली मेरी दूसरी तरफ की पसलियों पर थी और उंगलियाँ बनियान पर और अंगूठा और हथेली का कुछ भाग मेरी त्वचा को स्पर्श कर रहा था, जबकि दूसरी हथेली से उसने जोर से मेरी दूसरी बांह पकड़ कर मुझे गिरने से बचा लिया था |

मेरी हडबडाहट और गिरने की घटना से घबराकर किसी ने भीड़ से कहा – अरे काहे भैया को परेशान करते हो | काहे तमाशा लगा के रखे हो | कौनो आदमी को नहाते नहीं देखे हो का पहिले ? चला !… अपना अपना काम पे चला …. नहैई देई भैया का ! का फायदा कौनो चोट वोट लगे जाय …तो फिर ?” अब तक मैंने आँखें साफ़ कर के खोल के देखा तो बृजेश के घर पर जिस लड़के ने कल रात को खाना खिलाया था, वही वहाँ मौजूद लोगों को कह रहा था | उसके कहने पर लोग थोड़ा दूर तितर-बितर हो गए मगर फिर भी मुड़ कर मेरे को बीच-बीच में देखते रहे | बच्चे तो अब भी पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर आसन जमा के बैठे हुए लगातार मुझे ही देखे जा रहे थे, जैसे ये रंगारंग कार्यक्रम सिर्फ उनके मनोरंजन के लिए ही आयोजित किया गया हो |

स्नान प्रक्रिया पूर्ण करने के बाद थोड़ी कंपकपी सी होने लगी | पानी भी ठंडा था और सुबह सुबह कि हवा भी ठंडी थी | मुझे कांपते हुए देख कर बृजेश झट से भाग कर पेड़ पर टंगे मेरे कपड़ों से मेरा तोलिया और अपने कपड़ों में से एक और सूखा अंगोछा ले आया और मेरी तरफ बढाते हुए बोला, “जल्दी से बाल सुखा कर ये गीले कपड़े बदल कर, सूखे कपड़े पहन लीजिये नहीं तो ठण्ड लग कर बीमार न हो जाएँ” | मैंने पहले सिर पोंछा, बालों से टपकता पानी कम हुआ तो बाहें, पोछीं | बनियान उतारने का तो प्रश्न ही नहीं था | बृजेश समझ चुका था कि मैं ऐसे में कपड़े नहीं बदलने वाला था | उसने छोटू (जिसने रात को भोजन परोसा था) को बुलाया और दोनों ने मिलकर अंगोछे से मेरे चारों और कपड़े की दीवार बना दी और दोनों मेरी तरफ पीठ करके मुंह दूसरी ओर करके खड़े हो गए जिससे मैं बिना झिझक गीली बनियान उतार कर सूखे कपड़े पहन लूँ | बृजेश ने एक हाथ में मेरी सूखी बनियान भी पकड़ी हुई थी | अब मैंने ध्यान दिया तो बच्चों का झुण्ड लगातार मुझे देख कर प्रसन्न हो रहा था और लोग बाग़ भी बहाने से मुझे देखे जा रहे थे | संभवतः बृजेश से मुझे मिलने वाला यह special treatment देख कर सब हैरान हो रहे थे, नहीं तो मैं कोई चिड़ियाघर से आया नया अलबेला जंतु तो था नहीं कि सबका ध्यान अनायास आकर्षित करता |

बनियान बदल कर मैंने बृजेश से सूखा अंगोछा ले लिया ताकि मैं अंडरवियर बदल सकूँ| बृजेश ने मुझे हाथ पकड़कर, अपने हाथ का सहारा देकर उस दलदली कीचड़ वाले स्थान से बाहर निकलने में सहायता की | आज जब वो याद करता हूँ तो लगता है, शायद कुछ ज्यादा ही हो गया था | एक ‘शहरी गँवार’, गाँव के गँवारों से अधिक मूर्ख और नासमझ था जिसे नहाने धोने में भी दूसरों की सहायता चाहिए थी | खैर, अब बारी थी गीला अंडरवियर बदलने की | मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि यह इतना आसान नहीं था मेरे लिए जितना मैंने सोचा था | एक हाथ तो अंगोछे को सम्हालने में ही व्यस्त था और दूसरे हाथ से अपना गीला अंडरवियर उतारना या नया अंडरवियर पहनना – इसके लिए भी अभ्यास चाहिए होता है | नहीं तो दुर्घटना होने की प्रबल संभावनाएं हैं |

जैसे ही मैंने अपना वी-कट सफ़ेद अंडरवियर उतारा तो छोटे बच्चों में से एक कौतुहल पूर्वक पूछने लगा , “भैया आप ऐसी चड्डी पहनते हैं?” | इस छोटे शैतान के प्रश्न ने अनायास ही सबका ध्यान अब मेरे अंडरवियर की तरफ खींच दिया था | सबका इस तरह मेरे अंतर्वस्त्र, मेरे अंडरवियर को घूरना और हंसना मुझे बहुत बुरा महसूस करा रहा था | ऐसा लगा मानों मेरे को नग्न देख लिया हो सबने |

कपड़े (बनियान, नीचे सूखा अंडरवियर और उसके ऊपर सूखा अंगोछा लेता हुआ) पहन कर हैंडपंप से दूर जाकर मैं पेड़ के नीचे अपने और बृजेश के कपड़ों के पास, बच्चा पार्टी के पास खड़ा हो गया | छोटू अब हैंडपंप चला रहा था और बृजेश नहा रहा था | मेरे बार बार आग्रह करने पर भी बृजेश ने मुझे हैंडपंप चलाने नहीं दिया | हालाँकि अब गीले कपड़े बदलकर मैंने सूखे कपड़े पहन लिए थे और गीले बदन पर लगने वाली हवा की तरह हवा इतनी अधिक ठंडी नहीं महसूस हो रही थी, फिर भी थोड़ी सी ठण्ड और बीच बीच में रुक रुक कर होने वाली कंपकपी अभी भी चालू थी | वहाँ खड़ा-खड़ा मैं अपने बाल तौलिये से सूखता जा रहा था और बृजेश को नहाते हुए देख रहा था |

जिसको पूर्ण नग्न अवस्था में खेत में खुले आम भी कोई संकोच नहीं हुआ था, उसके लिए सिर्फ एक अंडरवियर पहन कर नहाना और अपनी पूर्ण सुगठित बलिष्ठ काया का प्रदर्शन करना कौन सी बड़ी बात थी ? और कहना पड़ेगा, उसकी त्वचा का रंग चाहे मेरे जैसा उज्जवल न भी हो, पर हर दृष्टिकोण से वो आँखों और मन का ध्यान अपने तरफ खीचने में पूर्णतः सक्षम था | चौड़ी छाती में हलके बादामी रंग के दो उज्जवल निप्पल, हलके मुलायम बालों से सुसज्जित छाती के बीच से निकलती रेखा जो नीचे ठीक नाभि के बीच से होकर जाती थी जैसे नदी की धारा अपने गंतव्य की तरफ जाती है, और पेट के दोनों तरफ 6 पैक जैसा आभासी उभार, वास्तव में किसी भी दृष्टा द्वारा की जाने वाली उसकी सुन्दरता की, शारीरिक बल-सौष्ठव की प्रशंसा से एक कदम अधिक ही बैठेगा | अपने बलिष्ट, मांसल, सुडौल बाहुओं को ऊपर उठा कर जब वो मग्गे से पानी अपने सिर पर उडेलता था तो दंड-बैठक से की गयी मेहनत उसकी बाहुओं की उभार-आकृति में साफ़ परिलक्षित होती थी जो उसको और भी आकर्षक और भरोसेमंद व्यक्तित्व का स्वामी घोषित करते थे |

उसका अपने मित्रों, प्रियजनों के छोटी से छोटी बातों और जरूरतों का ध्यान रखना, निस्संदेह उसकी आत्मिक सुन्दरता को प्रकट करता है जो शारीरिक सुन्दरता में कई गुना अधिक प्रभाव जोड़ देती है, क्योंकि बाहरी सुन्दरता तो सिर्फ भौतिक शरीर तक अपना प्रभाव पहुंचा पाती है, पर उसके विचारों की, जो दूसरों की छोटी-बड़ी ज़रूरतों को समझ कर उनकी सहायता, उनकी सेवा में समर्पित होता है, वो आत्मा के स्तर पर संबध स्थापित कर के “आत्मीय स्वजनों” की श्रेणी में शामिल हो जाता है | अब मुझे नहीं मालूम कि ऐसा विशेष ध्यान वो सिर्फ मेरा ही रख रहा है या यह उसका अपना स्वाभाव ही है | मैं तो इसको उसका स्वाभाव ही मानूंगा क्योंकि बनावटी, दिखावे की सेवा किसी न किसी लालच की, या सीमित अवधि की हो सकती है | हर क्षण, हर बार, हर अवसर पर सदा एकसमान नवयौवना की तरह नित-नूतन, उत्साहित भाव से रहने की प्रेरणा स्वभावगत ही हो सकती है जहां किसी प्रत्युत्तर की अपेक्षा न हो |

(क्रमशः …शेष अगले अंक में जारी …!)